Book Title: Atit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 226
________________ २१२ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ लुप्तमास मानकर संख्यांकित नहीं करना। ऐसा होने से ५० दिन और ७ दिन दोनों की व्यवस्था बैठ सकती है। ___ वर्तमान में सभी जैन लौकिक पंचांग को आधार मानकर चल रहे हैं। इस दृष्टि से लौकिक ज्योतिष की धारणा को मान्य करके ही पर्व की आराधना करना उचित है। एक ओर आगमोक्त ५० और ७ दिनों का आग्रह, दूसरी ओर लौकिक ज्योतिष का आधार-ये दोनों बातें एक साथ संगत नहीं हो सकतीं। यदि ५० और ७ दिनों का आग्रह हो तो चातुर्मास में मास-वृद्धि अस्वीकार कर देनी चाहिए। यदि चातुर्मास में मास-वृद्धि की बात स्वीकार की जाती है तो लौकिक ज्योतिष के अनुसार पर्वाराधना की दृष्टि से पन्द्रह दिन (कृष्ण पक्ष) प्रथम मास में और पन्द्रह दिन (शुक्ल पक्ष) अधिमास मे मान्य होते हैं। इस धारणा के आधार पर दो भाद्रपद मास होने की स्थिति में संवत्सरी पर्व की आराधना द्वितीय भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में होनी चाहिए। भाष्यकालीन परंपरा में चतुर्मास के तीन विकल्प मिलते हैं• जघन्य चतुर्मास ७ दिन का • मध्यम चतुर्मास चार मास का • उत्कृष्ट चतुर्मास छह मास का। 'भगवती आराधना' दिगम्बर परंपरा का प्रधान ग्रन्थ है। उसकी परंपरा यह है-“उत्सर्ग विधि के अनुसार चतुर्मास १२० दिन का होता है। किन्तु कारण की अपेक्षा वह हीन और अधिक भी हो सकता है।" दिगम्बर परंपरा के आधार पर भी यही बात प्रमाणित होती है कि ५० और ७ दिन का उत्सर्ग नियम है। अपवाद विधि के अनुसार इसके अनेक विकल्प हो सकते हैं। __ श्वेताम्बर परंपरा में विरोधाभास इसलिए पल रहा है कि वहां एक ओर वर्षावास के १२४ दिन मान्य किए गए हैं, दूसरी ओर लौकिक पंचांग मान्य किया गया है। उसके अनुसार वर्षावास में १२० दिन प्रायः नहीं होते। कुछ वर्षों की तालिका यहां प्रस्तुत की जा रही है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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