Book Title: Atit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 236
________________ २२२ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ इसीलिए यह परिवर्तनीय है । एक स्थविर मुनि पादुका पहन सकता है । चिकित्सा कराना मुनि के लिए अनावश्यक है । श्वेताम्बर और दिगम्बर सब मुनि चिकित्सा कराते हैं। क्या इसे आचार की शिथिलता मानें ? 'व्युत्सृष्टत्यक्तदेहे' साधना की भूमिका के लिए चिकित्सा कराना अनाचार हो सकता है किन्तु एक सामान्य मुनि के लिए अनाचार कैसे कहा जाए? हमने नियमों के पीछे जो अपेक्षाएं थीं, उन्हें समझने का प्रयत्न कम किया है, नियम की भाषा को पकड़ने का प्रयत्न अधिक किया है इसीलिए हमारे सामने उलझनें अधिक हैं, समाधान कम हैं । महावीर और पार्श्व भगवान् पार्श्व और भगवान महावीर की परम्परा में आचार विषयक भेद बहुत था इसीलिए उनके शिष्यों के मन में संदेह भी पैदा होता रहता था । आगम साहित्य में उसके अनेक प्रसंग मिलते हैं। इससे फलित होता है कि साधुत्व की मूल अवधारणा पांच महाव्रत अथवा अठारह पाप के प्रत्याख्यान से जुड़ी हुई है। शेष नियम साधुत्व के विशेष प्रयोग हैं । भगवान् पार्श्व ने प्रतिक्रमण और पर्युषण को अनवार्य नहीं बतलाया । भगवान् महावीर ने इन्हें अनिवार्य नियम बना दिया। इसका अर्थ इतना ही है कि साधुत्व की सामान्य भूमिका को दोनों तीर्थंकरों ने प्रतिपादित किया । विशेष प्रयोगों के लिए उनका अपना-अपना दृष्टिकोण था । हम सामान्य और विशेष दोनों को एक ही तराजू से न तोलें प्रश्न मूल गुण का श्वेताम्बर परम्परा में मूलगुण पांच हैं । दिगम्बर परम्परा में मूल गुणों की संख्या अट्ठाईस है - पांच महाव्रत, पांच समितियां, पांच इंद्रियों का निरोध, केशलोच, छह आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधवन, खड़े-खड़े भोजन और एक बार आहार । यह भेद एक विचिकित्सा उत्पन्न करता है इसीलिए दिगम्बर मानस में श्वेताम्बर साधु की शिथिलता झलकती है। वह नग्न मुनि को ही मुनि के रूप में स्वीकार करता है । किसी वस्त्रधारी मुनि को मुनि मानने के लिए उसका अन्तर्मन उल्लसित नहीं होता । इस विषय को संयम की कसौटी पर नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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