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जैन शासन की एकता : आचार की कसौटी २२५ शिथिलता का आरोषण न करें। आजकल अनेक साधु और अनेक श्रावक इस आचार विषयक कठोरता और शिथिलता की चर्चा में संलग्न हैं। मुझे लगता है-इसका परिणाम जैन शासन के लिए हितकर नहीं होगा। आचार की संयमात्मक कसौटी के आधार पर ही उसकी कठोरता
और शिथिलता का अनुमापन हो तो एकता की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। इस स्थिति का निर्माण अनेकान्त के द्वारा ही हो सकता है। जैन धर्म के अनुयायियों ने अनेकान्त का गुणानुवाद बहुत किया है, जीवन में उसका उपयोग कम किया है। युग की मांग है-अब उसका सम्यक् उपयोग करें, एकता की दिशा में चरण आगे बढ़ाएं। नई समस्या आज एक नई समस्या और पैदा हुई है-कुछ मुनि व्यक्तिशः अपने आचार का परिवर्तन कर रहे हैं। वे किसी परंपरा या सम्प्रदाय से अनुशासित नहीं हैं। यह मनोवृत्ति शायद सबसे अधिक खतरनाक है। इन सब समस्याओं के संदर्भ में एक विचार उभरता है- आज जैन शासन के चार मुख्य सम्प्रदायों की एक संगीति हो। इसमें मौलिक आचार अथवा पांच महाव्रतों के मूल स्वरूप का निर्धारण हो। वह जैन मुनि के मुनित्व की अनिवार्य अवधारणा हो। उत्तर गुण या उत्तर आचार की भिन्नता के आधार पर परस्पर एवं दूसरे को शिथिल या कठोर कहने की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति समाप्त हो तो साधु संस्था के लिए एक स्वस्थ परम्परा का निर्माण किया जा सकता है। निष्कर्ष की भाषा
पांच महाव्रत, रात्रि-भोजन विरति व्रत, पांच समितियां, तीन गुप्तियां-इनकी आराधना में जागरूकता आए और इनकी पुष्टि में सहयोगी बनने वाले नियमों की अनिवार्यता रहे, ध्यान की परम्परा विकसित हो, शेष नियमों और व्याख्या भेदों को दीर्घकालिक चिंतन के बाद बदलने की स्थिति बने तो जैन शासन की गरिमा बढ़ेगी, मनमाना परिवर्तन करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा और धीमे-धीमे आचार की एकता की दिशा में भी हमारे चरण आगे बढ़ेंगे।
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