Book Title: Atit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 234
________________ २२० अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ नियम है। इसे संयम या मौलिक आचार की कोटि में नहीं रखा जा सकता। शरीर की सामर्थ्य हो तो एक बार ही भोजन करना बहुत अच्छी बात है। यदि किसी की सामर्थ्य न हो तो दो बार भोजन करने में क्या बाधा है? राग-द्वेष या मूर्छा का प्रसंग यदि दो बार करने में हो सकता है तो वह एक बार में भी हो सकता है। सन्दर्भ पात्र का श्वेताम्बर मुनि पात्र में भोजन करते हैं और दिगम्बर मुनि करपात्री हैं। पात्र न रखना बहुत अच्छी बात है, विशेष नियम है। इस नियम को अपरिवर्तनीय कैसे माना जा सकता है? हाथ का पात्र के रूप में उपयोग करना एक सीमा का निर्धारण है। ठीक उसी प्रकार हाथ और पात्र-दोनों का उपयोग करना एक सीमा का निर्धारण है। इसे अपनी-अपनी सीमा का निर्धारण ही कह सकते हैं, इससे आगे नहीं ले जा सकते। यदि पात्र रखने को मूर्छा के साथ जोड़े तो कमण्डलु को उसमें कैसे बचा पाएंगे? यदि पात्र रखना मूर्छा या परिग्रह है तो कमण्डलु रखने में मूर्छा या परिग्रह क्यों नहीं है? दिगम्बर परम्परा में अनिवार्यता की दृष्टि से जैसे कमण्डलु रखने को विहित मान लिया गया वैसे ही श्वेताम्बर परम्परा में अनिवार्यता की दृष्टि से भोजन-पात्र रखने को विहित मान लिया गया। इसे सीमा का विस्तार कहा जा सकता है पर अतिक्रमण नहीं कहा जा सकता। अनिवार्यता का सूत्र पात्र के साथ भी जुड़ा रहे, यह आवश्यक है। संभावना की दृष्टि बहुत सारे नियम सुरक्षात्मक संभावना की दृष्टि से निर्धारित किए गए। तेरापंथी मुनि यात्रा काल में यात्रियों का आहार ग्रहण करते हैं। स्थानकवासी मुनि यात्रियों का आहार नहीं लेते। न लेने के पीछे संभावना का दृष्टिकोण ही हो सकता है। संभव है गृहस्थ साधु के लिए आहार बना दे। यह संभावना एक गांव में भी की जा सकती है। ब्रह्मचर्य की नौ बाड़ में अनेक नियम संभावना की दृष्टि से बनाए गए हैं। संभावना की दृष्टि से सैकड़ों-सैकड़ों नियमों का निर्माण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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