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१७८ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
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कपड़े यदि मैले हों तो जनता में अपवाद होता है । इस लोकापवाद से बचने के लिए आचार्य के वस्त्र धोए जा सकते हैं । यह बहुत प्राचीन परंपरा है और तेरापंथ संघ में भी यह चालू है । एक बार जयाचार्य के समय में ऐसा प्रसंग आया। कुछ साधुओं ने यह प्रश्न उपस्थित किया- 'आचार्य के कपड़े नहीं धोने चाहिए।' श्रीमज्जयाचार्य ने कहा - ' आचार्य के कपड़े धोने में कोई आपत्ति नहीं है।' काफी तर्क-वितर्क हुए । विवाद बढ़ गया। बात छोटी थी, पर विवाद ने नया रूप धारण कर लिया। श्रीमज्जयाचार्य ने इसका समाधान निकाला । उन्होंने कहा - 'आचार्य के कपड़े धोने में कोई दोष नहीं है । मैं इसमें कोई दोष नहीं मानता। मैं इस विषय में किसी आचार्य को नहीं रोकता मैं स्वयं आचार्य होते हुए भी अपने कपड़े नहीं धुलाऊंगा। आज से मैं इस विधि को केवल अपने लिए छोड़ता हूं।' यह एक समाधान था । उस समय स्थिति को संभालना भी आवश्यक था । उन्होंने इस समाधान सेति को संभाला। विवाद समाप्त हो गया। कुछ मुनियों ने जयाचार्य से कहा - 'जब दोष नहीं है, आप दोष मान नहीं रहे हैं तब इस विधि को क्यों छोड़ रहे हैं? उन्होंने कहा - 'मैं छोड़ रहा हूं, मैं नहीं धुलाऊंगा । भावी आचार्य के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं है । वे चाहें तो कपड़े धुला सकते हैं। कोई आपत्ति नहीं है । सिद्धान्ततः इसमें कोई बाधा नहीं है । फिर भी मैं व्यक्तिगत रूप से इसे छोड़ रहा हूं। मेरा यह व्यवहार ऐसा ही है जैसे एक पांच वर्ष का बच्चा मकान के ऊपर चढ़ा और छज्जे पर आकर बैठ गया। उसने मां से कहा- मां ! मुझे लड्डू दे, अन्यथा मैं छज्जे से गिर पडूंगा । ऐसी स्थिति में क्या करे मां बेचारी ? वह मुसीबत में फंस गई। बच्चे को उसने समझाया । वह नहीं माना। तब मां ने उसे लड्डू ला दिया। मैंने भी गिरते हुए बच्चे को लड्डू दिया है । मैं कपड़े धोने की प्रवृत्ति में दोष नहीं मानता, फिर भी इसे छोड़ता हूं ।'
बीमार के कपड़े धोए जाते हैं, आचार्य के कपड़े धोए जाते हैं, रात्रि के कपड़े धोए जाते हैं और विशेष परिस्थिति में सामान्य साधु के कपड़े भी धोए जाते हैं।
आज कपड़े धोने की जो विधि की गई है उसका भी एक निमित्त बना है। गुरुदेव पंजाब की यात्रा सम्पन्न कर दिल्ली पधारे । गर्मी के
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