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परिवर्तन की परम्परा : २ १७७ रही थी, उसका रूपांतरण कर दिया गया, उसे बदल दिया गया। पहले माइक था ही नहीं। इसलिए उसमें बोलने या न बोलने का प्रसंग ही नहीं आया। आज माइक है। हम उसमें बोलते हैं। यह एक नयी बात हमारे सामने आयी। यह है नये का स्वीकरण। इसे परिवर्तन नहीं कहा जा सकता।
पहले कपड़े नहीं धोते थे, अब धोते हैं, यह है परिवर्तन । पहले भी कपड़े धोते थे। केवल दो-तीन कपड़े नहीं धोते थे, और सारे कपड़े धोते थे। रात में पहनने-ओढ़ने के सभी कपड़े धोते थे। दिन में पहनने-ओढ़ने के कपड़े नहीं धोते थे। अब ये कपड़े भी धोते हैं। यह है परिवर्तन। प्रश्न हो सकता है कि क्या ऐसे परिवर्तन किए जा सकते हैं? जब आगम में यह निषेध हो कि कपड़े नहीं धोने चाहिए तब क्या आचार्य को यह अधिकार है कि वे इस बात को बदल दें? __ दो तरह की बातें होती हैं। कुछ बातें 'करणसत्तरी' की कोटि में आती हैं और कुछ बातें 'चरणसत्तरी' की कोटि में आती हैं। 'करणसत्तरी' का अर्थ है, क्रिया (उत्तरगुण) की सत्तर बातें और 'चरणसत्तरी' का अर्थ है, आचरण (मूलगुण) की सत्तर बातें। सत्तर-सत्तर बातों की दो कोटियां की गईं। मूल बातों को नहीं बदला जा सकता। वे परिवर्तन की कोटि में नहीं आतीं। इन ‘चरणसत्तरी' की सभी सत्तर बातों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। किन्तु 'करणसत्तरी' की जो बातें हैं उन बातों में आचार्य एक अपेक्षा का नियोजन कर सकते हैं। जैसे सूत्र का विधान है कि विभूषा के लिए कपड़ा नहीं धोना चाहिए। जो मुनि विभूषा का अर्थी होकर कपड़े धोता है उसे प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अब यह व्याख्या की बात रही कि हम कपड़े धोने को विभूषा माने या न मानें। यह हमारे चिंतन पर निर्भर है। शास्त्र का विधान है कि विभूषण-शीलता के लिए कपड़े न धोए जाएं। हम विभूषा के लिए कपड़े धोते हैं। यह कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता।
कोई मुनि बीमार है। दवा लगाई, तेल लगाया शरीर पर, कपड़ा चिकना हो गया। उसे धोया जा सकता है। यह प्राचीन परंपरा है। यह विभूषा के लिए नहीं है। आचार्य के कपड़े धोए जा सकते हैं क्योंकि आचार्य के पास बहुत सारे लोग आते हैं, बड़े-बड़े आदमी भी आते हैं,
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