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३२ परिवर्तन के लिए व्यापक दृष्टिकोण चाहिए
साधु दो कोटि के होते हैं-१. आत्मानुकम्पी २. उभयानुकम्पी। साधना की दो कोटियां हैं- १. वैयक्तिक और २. सामुदायिक। आत्मानुकम्पी मुनिा का साधना-पथ वैयक्तिक होता है। वह अपनी साधना में ही लीन होता है। उसके पीछे कोई गण या सम्प्रदाय नहीं होता। उभयानुकम्पी का साधना पथ सामुदायिक होता है। वह समुदाय में रहता है, दूसरों को पथ-दर्शन देता है, उपदेश देता है, उसके पीछे कोई गण या सम्प्रदाय होता है।
आज का साधु-समाज केवल आत्मानुकम्पी नहीं है। वह उभयानुकम्पी है, अपने और पराये दोनों का हित-चिंतन करने वाला है। ___ साधु और श्रावक एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। श्रावक साधु के लिए निश्रा-स्थान होता है, साधु श्रावक के लिए पथ-दर्शक। यह सनिश्चित है कि साधु और श्रावक का सम्बन्ध जो है, वह धार्मिक है। श्रावक साधु को धार्मिक जीवन के निर्वाह में सहयोग देता है और साधु श्रावक के धार्मिक जीवन का नेतृत्व करता है। साधु संभोग और धन-संग्रह से मुक्त होता है। इसलिए उसका जीवन केवल धार्मिक ही होता है। श्रावक संभोग और धन संग्रह से पूर्णतया मुक्त नहीं होता, इसलिए उसका जीवन धर्मोन्मुख होते हुए भी पूर्ण धार्मिक नहीं होता। वह लौकिक जीवन जीता है, समाज में रहता है, उसकी व्यवस्थाओं व विधि-विधानों का पालन करता है। लौकिक जीवन गृहस्थ की असमर्थता है, इसलिए साधु उसके निर्वाह का निषेध भी नहीं करता और वह धार्मिक नहीं है, इसलिए उसका विधान भी नहीं करता। किन्तु जीवन निर्वाह की दोषपूर्ण पद्धतियों का निषेध करना साधु का कर्तव्य है। यदि वह ऐसा न करे तो उसका पथदर्शन त्रुटिपूर्ण होता है। भगवान् महावीर
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