Book Title: Atit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 206
________________ १६२ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ ने बारह व्रतों की व्यवस्था में सामाजिक दोषों पर प्रहार किया है। कुछ लोग कह बैठते हैं - साधु सामाजिक कार्यों में भाग क्यों ले? पर वे चिन्तन को थोड़ा आगे नहीं बढ़ाते । विवाह, व्यापार, विनिमय, धन, शक्ति और सत्ता के संग्रह से अधिक और सामाजिकता क्या है ? भगवान् महावीर ने इन सबकी दोषपूर्ण पद्धतियों पर विचार किया है और उन्हें छोड़ने की प्रेरणा दी है । समाज एक गतिशील प्रवाह है। वह अपनी गति से सतत चलता । जो चलता है, वह एक रूप लिए कभी नहीं चलता । वह नए-नए मोड़ लेता है, अनेकरूपता लिए चलता है । वह परिवर्तन है । परिवर्तन में कुछ नया आता है तो कुछ पहले का चला जाता है । जो आता है वह इष्ट ही होता है, यह नहीं कहा जा सकता और यह भी नहीं कहा जा सकता कि जो जाता है वह अनिष्ट ही होता है । इष्ट-अनिष्ट की समझ भी एक नहीं है । देश - काल बदलता है, वैसे इष्ट-अनिष्ट की कल्पना भी बदलती है । सामाजिक परम्पराओं में ऐसा स्थिर तत्त्व है भी क्या, जिसे शाश्वत भाव से इष्ट या अनिष्ट कहा जाए? पर्दा एक सामाजिक परम्परा है। किसी देश काल में वह इष्ट था इसीलिए उसने भारत के आभिजात्य वर्ग में प्रसार पाया। आज वह अनिष्ट है इसलिए वह उस वर्ग से उठ रहा है । प्रश्न होता है - पर्दा इतना क्या बुरा है? जिसे उठाने के लिए एक आन्दोलन-सा चल रहा है । फिर प्रश्न होता है पर्दा इतना क्या अच्छा है, जिसे रखने के लिए पुरुष इतने आतुर हैं और महिलाएं इतनी चिंतित ? इन दोनों प्रश्नों पर गहराई से विचार करना है । पर्दा रहे तो कौन-सी बड़ी हानि होती है और न रहे तो कौन - सा बड़ा विकास होता है ? रोग की जड़ पर्दा नहीं है वह तो एक निमित्त है। जड़ है भीरुता, कायरता, अज्ञान, लज्जा का मिथ्या प्रदर्शन और प्रवञ्चना । बहुत बार ऐसा होता है कि निमित्त मूल से बलवान् बन जाता है, इसीलिए सूक्ष्मदर्शी लोग कार्य परिवर्तन के लिए कारण परिवर्तन को महत्त्व देते हैं । आगम सूत्रों में इन्द्रियों को चोर कहा है, शत्रु कहा है, पर क्या इन्द्रियां चोर हैं, शत्रु हैं? वे आत्मा के विकास - स्रोत हैं । वे रागद्वेष के निमित्त बनते हैं इसलिए उनको चोर कहा है, शत्रु कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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