________________
३३. संघीय अनुशासन
अनुशासन की आधार भूमि है लज्जा। साधारणतया लज्जा का प्रयोग लाज, संकोच अथवा शर्म के अर्थ में होता है। लाजवन्ती की पत्ती का कोई स्पर्श करता है, पत्तियां सिकुड़ जाती हैं, छुई-मुई हो जाती हैं । अकरणीय को करने का प्रसंग आने पर जो स्वतः संकुचित हो जाता है, उसके ललाट पर अनुशासन की लिपि अंकित हो जाती है । इसीलिए संस्कृत कवि ने लज्जा को जननी की भांति गुण समूह की जननी कहा है। अनुशासन और अनुशास्ता का बहुत मूल्य है । इनसे भी अधिक मूल्य है अनुशासित का, जो अनुशासन को श्रद्धा पूर्वक शिरोधार्य कर लेता है। इसी सत्य को सामने रखकर आचार्य भिक्षु ने कहा था
सुज्यो रे साधन साध्वी, राखज्यो हेत विशेष । जिण तिण ने मत मूंडज्यो,
दीख्या दीयो देख देख !
जिस किसी को शिष्य मत बना लेना। जांच-पड़ताल कर शिष्य को दीक्षित करना ।
तेरापंथ की विशिष्टता का हेतु है योग्य व्यक्ति की दीक्षा | आचार्य भिक्षु ने अनुभव किया- 'शिष्य लोलुपता और अनुशासन - ये दोनों परस्पर विरोधी हैं। शिष्यों की संख्या अधिक हो, यह अवधारणा अनुशासन पर हिमपात जैसी है ।
आचार्य भिक्षु तेरापंथ को केवल अनुशासन देते और योग्य दीक्षा का मंत्र नहीं देते तो अनुशासन कभी सफल नहीं होता । तेरह साधु थे और छह रह गए फिर भी अनुशासन को शिथिल नहीं किया। जो रहे, वे योग्य थे। योग्यता का संवर्धन हुआ और तेरापंथ अनुशासन के लिए उदाहरण बन गया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org