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३४. उस संघ को प्रणाम
तेरापंथ का अर्थ है - आत्मोत्सर्ग । जो व्यक्ति आत्मोत्सर्ग करना नहीं जानता, वह तेरापंथ को नहीं जान सकता । जिस व्यक्ति में आत्मोत्सर्ग की क्षमता होती है, व्यक्तिगत अहं और व्यक्तिगत स्वार्थ के विसर्जन की क्षमता होती है, वही व्यक्ति वास्तव में तेरापंथ का अर्थ समझ सकता है । एक विदेशी लेखक ने लिखा है - हिन्दुस्तान की एक सबसे बड़ी समस्या है - व्यक्तिगत स्वार्थवादी मनोवृत्ति | इस समस्या ने सारे राष्ट्र में भ्रष्टाचार को जन्म दिया है ।
आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ का दर्शन दिया । उसमें सबसे पहली बात आत्मोत्सर्ग की कही । समर्पण और आत्मोत्सर्ग का विकास निरन्तर हुआ है, इसमें कोई सन्देह नहीं । आज तक की हमारी परम्परा में बहुत पहले से आत्मोत्सर्ग और समर्पण की बात रही है, विनम्रता और अनुशासन की बात रही है I
जिस संघ में गुरु के प्रति सर्वात्मना समर्पण होता है, उस संघ का नाम है - तेरापंथ । साधु बनना, पांच महाव्रतों का पालन करना, पांच समितियों और तीन गुप्तियों का पालन करना अनिवार्य बात है । किन्तु उसमें भी अनिवार्य बात है समर्पण और अनुशासन की । आचार्य भिक्षु ने सोचा- यदि संघ में संगठन और अनुशासन नहीं होगा तो महाव्रतों, समितियों और गुप्तियों का पालन भी नहीं होगा । इसीलिए उन्होंने आचार के साथ-साथ अनुशासन को भी बड़ा महत्त्व दिया ।
तेरापंथ आचार-प्रधान संघ है तो साथ-साथ अनुशासन - प्रधान संघ भी है । जितना मूल्य इसमें आचार का है, उतना ही अनुशासन का भी है । आज तक की हमारी परम्परा ने इस बात को प्रमाणित किया है कि जिस व्यक्ति ने अनुशासन को भंग किया, वह आचार में भी स्थिर नहीं
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