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१६६ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
संकीर्ण परिधि से आगे देख पाते हैं और न उससे आगे सोच पाते हैं । आज का युग विज्ञान का युग है । विज्ञान की अनवरत प्रगति ने बहुत सारे नये तथ्यों को सामने रखा है। आज की अनुसन्धान पद्धति ने अतीत की शल्य-चिकित्सा कर डाली है। जिन शब्दों और तथ्यों को समझना गत कई शताब्दियों में कठिन था, वह आज सरल है । आज का प्रकाशक अन्वेषक के लिए बहुविध सुविधाएं प्रस्तुत करता है । इस परिवर्तित परिस्थिति में क्या यह उचित होगा कि हम लोग दृष्टि को न तो व्यापक बनाएं और न चिन्तन को विकसित करें। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो शब्दों की पकड़ से अपने को छुड़ा नहीं सकते । किन्तु जो चिन्तनशील हैं देशकाल की मर्यादा का जिन्हें भान है वे केवल शब्दों की रट. नहीं लगा सकते । चिन्तन की स्वतन्त्र दिशा में आचार्य भिक्षु और श्रीमज्जयाचार्य ने जो किया है, वह हमारे सामने आदर्श है । व्यवहार सूत्र (तृतीय उद्देशक सूत्र ११ ) में साधु को 'दुसंगहिए' बतलाया है । वह आचार्य और उपाध्याय के बिना नहीं रह सकता । साध्वी को 'तिसंगहिए' बतलाया है । वह आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी के बिना नहीं रह सकती। आचार्य भिक्षु ने इस सूत्र का आशय समझा और देश-काल की स्थिति को ध्यान में रख उपाध्याय और प्रवर्तिनी का पद आचार्य पद में ही गर्भित कर दिया । सात पदों की जो आगमिक व्यवस्था थी, उसे एक पदात्मक बना दिया। और भी उन्होंने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जो उनकी आशय-स्पर्शी बुद्धि के ज्वलन्त प्रमाण हैं ! आज की स्थिति यह है कि कोई विषय चिन्तन के लिए आता है, तो उसके आने से पहले ही छिछली आलोचना शुरू हो जाती है । यह समाज के स्वस्थ चिन्तन का परिचायक नहीं है 1
पर्दे के बारे में गुरुदेव ने स्पष्टता के साथ जो कहा, उससे कुछ लोग चौंके हैं। उन्होंने आलोचनाएं भी की हैं पर वे स्तर की नहीं हैं । किसी वस्तु की आलोचना न हो, यह कौन चाहता है ? आलोचना हो पर ऊंचे स्तर की हो, उसके पीछे चिन्तन हो, तर्क और आप्तवाणी का आधार हो, यह गुरुदेव स्वयं चाहते हैं ।
पर्दे की चर्चा कई वर्षों से चल रही है । लगभग १० वर्ष पहले श्री श्रीचन्दजी रामपुरिया, जो समाज में एक अध्ययनशील और
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