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१८६ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ हो सकता है। ऐसा होने पर व्यर्थ में उलझाने वाली छोटी-मोटी बातों से मुक्ति हो सकती है।
दो बातों की चर्चा की है। एक है-नयी स्थापना, नया व्यवहार और नया प्रवर्तन। दूसरी है-परिवर्तन। तीसरी जो है वह न तो कोई नयी स्थापना है, न कोई परिवर्तन है, वह एकमात्र व्यवहार की बात है।।
आज भी प्रश्न आया था-जैन विश्वभारती के बारे में। यह न तो कोई नयी स्थापना का प्रश्न है और न परिवर्तन का प्रश्न है। यह मात्र व्यवहार का प्रश्न है।
प्रश्न है कि मुनि जैन विश्वभारती का संचालन कर सकते हैं या नहीं? किसी भी संस्थान के संचालन में मुनि का प्रत्यक्षतः कोई योग नहीं होता। परन्तु चाहे कोई सभा हो, चाहे कोई दूसरी-तीसरी प्रवृत्ति हो, उसके बारे में हमारा सीमाबद्ध इंगित हो सकता है, जो पहले भी होता था, आज भी होता है और आगे भी हो सकता है। हमारा मूल इंगित है कि जैन विद्याओं का विकास होना चाहिए। जैन आचार्यों ने अनेक प्रकार की विद्याओं का उल्लेख किया है। बहुत साहित्य लिखा है, नयी खोजें की हैं और इतनी उपलब्धियां छोड़ी हैं कि समाज को गर्व हो सकता है।
कुछ दिन पूर्व पंजाब यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. शक्तिधर शर्मा यहां आए थे। उन्होंने बताया कि उनके पास उनके दो शिष्य-गर्ग और सज्जनसिंह लिस्क आए। उन्हें शोध-प्रबन्ध के लिए विषय चाहिए था। उन्होंने गर्ग से कहा--'तुम जैन गणित के अनुसार सूर्य-प्रज्ञप्ति पर अपना शोध-प्रबन्ध लिखो।' उसने कहा-'नहीं, यह बहत पुराना विषय है, मेरे मित्र कहेंगे-कितना पुराना विषय लिया है। मखौल होगा। मैं नहीं लेता इसे। मैं तो कोई भौतिकी शास्त्र का विषय लूंगा।' मैंने फिर सज्जनसिंह से कहा। उसने जैन गणित का विषय चुन लिया। उसने सूर्य-प्रज्ञप्ति सूत्र पर काम प्रारम्भ किया और आज इतने नये तथ्य प्रकट हुए कि हमें भी आश्चर्य होता है। जिस सूर्य-प्रज्ञप्ति के विषय में जैन भाइयों का यह कथन था कि इसमें अनेक बातें असंगत हैं, उसी ग्रन्थ के विषय में डॉ. शक्तिधर ने कहा था कि यह भारतीय साहित्य की अपूर्व उपलब्धि है। समूचे विश्व में वेदांग ज्योतिष के बाद एक ऐसा समय आता है,
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