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परिवर्तन की परम्परा : २ १७६ दिन थे। ज्येष्ठ, आषाढ़ का महीना था। भयंकर गर्मी पड़ रही थी। लम्बे-लम्बे विहार और पंजाब की वह चिकनी मिट्टी। शरीर पसीने से लथपथ हो जाता। रेत उस पर चिपक जाती। कपड़े मटमैले हो गए। उस समय तक कपड़े नहीं धोते थे। कपड़े बहुत गंदे हो गए। संयोग ऐसा मिला कि जिस दिन हम दिल्ली पहुंचे, उसी दिन प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन रख लिया गया। पहली कांफ्रेंस थी। बहुत प्रतिनिधि आए। उतनी बड़ी कांफ्रेंस फिर मैंने नहीं देखी। अनेक वरिष्ठ पत्रकार आए। डालमिया हाउस का विशाल हॉल। एक ओर गुरुदेव और साधु-साध्वी बैठ गए तो दूसरी ओर पत्र-प्रतिनिधि तथा अन्यान्य संभ्रान्त व्यक्ति बैठ गए। प्रेस कांफ्रेंस प्रारम्भ हुई। प्रश्नोत्तर होने लगे। एक पत्रकार ने पूछा-'आचार्यजी! यह क्या? इतने साधु-साध्वी बैठे हैं। किसी के चेहरे पर तेज नहीं। ऐसा लगता है कि मानो इनको खाने को न मिला हो; कपड़े न मिले हों। क्या यही ब्रह्मचर्य का तेज है? कितने गन्दे कपड़े? प्रेस कांफ्रेंस में अणव्रत की चर्चा होनी थी। परन्तु साधु-साध्वियों को देखकर पत्रकार के मन में दूसरा ही प्रश्न उठ खड़ा हुआ। अणुव्रत कहीं छूट गया और सबकी आंखें साधुओं के कपड़ों पर अटक गईं। धूल से सने कपड़ों और चेहरों पर सबका ध्यान अटक गया। सचमुच बड़ी परेशानी का अनुभव हुआ। सोचा कुछ और ही था और हुआ कुछ और ही। सब पत्रकार उस प्रश्न को ही मुख्य मान बैठे। गुरुदेव ने कहा-'हम बहुत लम्बी यात्रा करके आ रहे हैं। गर्मी के दिन हैं। धूप में निरन्तर चलने के कारण सबके चेहरे काले-काले-से हो गए हैं। ऐसा होता है। कोई आदमी दस दिन की रेलयात्रा कर आता है तो उसके कपड़े कोयले-से काले हो जाते हैं। चेहरा काला हो जाता है। गुरुदेव ने इस प्रश्न को समाहित करना चाहा, पर उसका हृदयग्राही समाधान नहीं हो
सका।
उसी रात को गुरुदेव ने कहा-'जब हमारा सम्पर्क सीमित था तब यह नियम बना था कि आचार्य के कपड़े धोए जा सकते हैं क्योंकि उनके सम्पर्क में अनेक विशिष्ट व्यक्ति आते हैं, बड़े लोग आते हैं। लोकापवाद न हो, यह इसका मूल हेतु था। आज हमारे साधु-साध्वियां दूर-दूर देशों में विहार करते हैं। बड़े-बड़े आयोजन होते हैं। विशिष्ट
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