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परिवर्तन की परम्परा : २ १८१ मोहल्ले में गोचरी जाना भी निषिद्ध है तो फिर चातुर्मास की आज्ञा कैसे दे दी? आगमपुरुष स्वतन्त्र होता है । जो उचित समझता है वह वैसे ही करता है । उसकी आज्ञा दे सकता है। किसी नियम या विधि-विधान की जरूरत नहीं। वह स्वयं शास्त्र है, नियम है, विधि-विधान है । वह स्वयं प्रमाण है
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दूसरा है श्रुत। आगमपुरुष की अनुपस्थिति में उनके वचनों के अनुसार वर्तन किया जा सकता है, शास्त्रों से काम लिया जा सकता है 1 शास्त्र का स्थान है दूसरा । पहला स्थान है आगमपुरुष का और दूसरा है शास्त्र का । आगमपुरुष का स्वतः प्रामाण्य है और शास्त्र का परतः प्रामाण्य है । आगमपुरुषों ने जो कहा, जिसका विधि-विधान किया, उसके आधार पर आचार और विधि-विधान का संचालन करो ।
प्रश्न है कि यदि शास्त्र न हों तो क्या करना चाहिए? इसका समाधान है कि उस स्थिति में 'आज्ञा' के अनुसार काम करो । किसी आचार्य ने कोई आज्ञा दी किसी समय, वह आज्ञा किसी की जानकारी में हो तो उस आज्ञा के आधार पर काम करो । आचार्य ने अपनी आज्ञा किसी के द्वारा प्रेषित कर दी कि तुम्हें यह काम करना है, तो उसके आधार पर काम किया जा सकता है।
आज्ञा भी यदि प्राप्त न हो तो क्या करना चाहिए? ऐसी स्थिति में 'धारणा' का प्रयोग होता है। पुराने साधुओं की इस विषय में यह धारणा है, अमुक समय में आचार्य ने ऐसा व्यवहार किया, उस धारणा के आधार पर काम करो । तेरापंथ में भी बहुत सारे काम इसी आधार पर किए गए कि स्वामीजी ने वैसा किया था, इसलिए वह आचरण कर लिया गया ।
यदि उपर्युक्त चारों बातें न हों तो फिर 'जीत व्यवहार' का सहारा लिया सकता है। जीत व्यवहार का अर्थ है कि जब कोई नया प्रश्न सामने आता है, नयी चर्चा का प्रसंग उपस्थित होता है, नये तर्क-वितर्क आते हैं, नयी बात आती है तो बहुश्रुत साधु उस पर चिन्तन-मनन करें, आगमों के सन्दर्भ देखें और जो बात सम्यक् व्यवहार में समझ में आ जाए, शुद्ध नीति के द्वारा जो निष्कर्ष सामने आए, उसका आचरण कर लें । यह जीत व्यवहार है । हमारी बहुत सारी व्यवस्थाएं, अनेक परम्पराएं
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