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परिवर्तन की परम्परा : २ १८३ स्थिति में क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, यह है परिवर्तन का आधार और इसी आधार पर नयी बातें स्थापित की जाती हैं, पुरानी बातों को छोड़ा जाता है और परिवर्तनीय बातों को बदला जाता है।
इसी संदर्भ में आचार्य भिक्षु ने जो एक व्यवस्था दी थी, वह गत पचीस सौ वर्षों के इतिहास नहीं मिलेगी। उन्होंने संगठन को जितना उबारा है, उसे अद्भुत कहा जा सकता है। जिस आधार पर संगठन टूटते हैं, टुकड़े-टुकड़े होते हैं, उन सभी तत्त्वों से उन्होंने संगठन को उबारा। उन्होंने सहज सरल राजस्थानी भाषा में कहा–'कोइ सरधा रो आचार रो नवो बोल नीकले तो बड़ा सूं चरचणो, पिण ओरां तूं चरचणो नहीं। ओरां संचरच ने और रे संका घालणी नहीं। बड़ा जाब देवै आपरै हीयै बेसै तो मान लेणो, नहीं बेसै तो केवलियां नैं भलावणों, पिण टोला माहे भेद पारणो नहीं, माहोमां जिलो बांधणो नहीं मिल मिल नैं।'
कितना महत्त्वपूर्ण सूत्र है! उन्होंने कितनी दूरदर्शिता के साथ प्रतिपादित किया कि सूत्र का, कल्प का, आचार का कोई नया प्रश्न सामने आ सकता है। दिमाग है तो दिमाग में नये प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं। हम यह नियन्त्रण नहीं कर सकते कि दो-सौ, चार-सौ वर्ष पहले तो कोई नयी बात सूझ सकती थी और आज उस पर ताला लग गया है, ऐसा कभी नहीं होता। जो बात हजार वर्ष पूर्व ध्यान में नहीं आयी, वह आज ध्यान में आ सकती है और आज जो ध्यान में नहीं आती, वह आगे कभी ध्यान में आ सकती है। चिन्तन के विकास को और विकास के क्रम को रोका नहीं जा सकता। यह रुकता भी नहीं । विज्ञान के क्षेत्र में तीन सौ वर्ष पूर्व जो उपलब्धियां नहीं हुई थीं, वे आज हो रही हैं। सौ-पचास वर्ष पूर्व हमने पढ़ा था कि अन्तरिक्ष यात्रा होगी। यान जाएगा। ये सारी कपोल-कल्पनाएं लगती थीं। सोचा जाता था कि भला ऐसे भी कभी हो सकता है? चन्द्रमा पर कोई यान जा सकता है? ये सारी बातें औपन्यासिक-सी लगती थीं, जासूसी उपन्यास जैसी लगती थीं। किन्तु आज यह सारा घटित हो गया। चन्द्रमा पर मानव-निर्मित यान उतर गया। मंगल-ग्रह पर भी यान पहुंच गया। अब इसे नकारा नहीं जा सकता, आज का आदमी तो नहीं नकार सकता। सारे सन्देह समाप्त हो गए हैं।
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