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३१. परिवर्तन की परम्परा : २
एक प्रश्न और सामने आता है कि समय-समय पर होने वाले परिवर्तन श्रद्धा को हिला देते हैं, एक जमी हुई बात पर श्रद्धा जो टिकी रहती है, वह परिवर्तनों के साथ डांवाडोल हो जाती है। इस प्रश्न को मैं अस्वाभाविक नहीं मानता क्योंकि हमने श्रद्धा को भ्रान्त रूप में समझ रखा है। श्रद्धा के विषय में हमारी समझ भ्रान्त है, सही नहीं है। लोगों ने मान लिया कि श्रद्धा से काम चल जाएगा, जानने की जरूरत नहीं है। सचाई यह नहीं है। सचाई यह है कि पहले जानना होता है, जानने के बाद श्रद्धा होती है। जब जानना ही नहीं तो श्रद्धा कैसे होगी? जब ज्ञान ही नहीं है तब श्रद्धा का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है? ज्ञान और आचरण इन दोनों के बीच में एक सेतु है, एक पल है। वह है श्रद्धा। श्रद्धा का सेतु मजबूत होता है तो हमारा ज्ञान आचरण तक पहुंच जाता है। श्रद्धा का सेतु कमजोर होता है तो ज्ञान ज्ञान मात्र रह जाता है, वह आचरण नहीं बनता। पहले हम जानते हैं। जानने के बाद हमारे में श्रद्धा होती है। ___मुझे लगता है कि लोगों ने अज्ञान को ही श्रद्धा का नाम दे दिया, अज्ञान को ही श्रद्धा मान लिया। भगवान् महावीर ने स्पष्ट कहा है
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो।
माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि य वीरियं॥ -चार वस्तुएं दुर्लभ हैं। उनमें पहली है-मनुष्यता। दूसरी हैश्रुति । प्राचीन काल में श्रुत का अर्थ ज्ञान था। ज्ञान सुनने से प्राप्त होता इसलिए ज्ञान का नाम श्रुति अथवा श्रुत हो गया। जैन परंपरा में ज्ञान के पांच प्रकारों में दूसरा प्रकार है-श्रुतज्ञान। वैदिक साहित्य में श्रुति
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