Book Title: Atit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 183
________________ परिवर्तन की परम्परा : १ १६६ 'आमे घडे निहत्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ । सिद्धन्तरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥' तह -जैसे कच्चे घड़े में डाला हुआ जल घड़े को नष्ट कर देता है और स्वयं भी नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार अपरिणत मुनि को यदि छेद - सूत्रों के रहस्य दे दिए जाएं तो वह स्वयं भी नष्ट हो जाता है और ज्ञान को भी विकृत बना डालता है । अतिपरिणत मुनि भी खतरनाक होता है । वह अपने आपको बहुत मान लेता है । संस्कृत में ऐसे व्यक्ति को अर्द्धदग्ध या पंडितमानी कहा गया है। वह यथार्थ में पंडित या ज्ञानी नहीं है, किन्तु अपने आपको पंडित या ज्ञानी मान लेता है । उसे भी छेद- सूत्रों के रहस्य नहीं देने चाहिए, क्योंकि वह उनका दुरुपयोग कर डालता है । उसका तर्क होता है कि जब ऐसा करने का विधान है तो फिर ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? ऐसा भी किया जा सकता है । वह एक विधान के आधार पर ऐसे अनेक विधि-विधान गढ़ लेता है, जो उसमें स्थान-स्थान पर छेद उत्पन्न कर देते हैं । उसको भी रहस्य नहीं बताने चाहिए । रहस्य, केवल उसी व्यक्ति को बताने चाहिए जो यथार्थ रूप में परिणत है । जो न अ- परिणत है और न अति-परिणत, उसे ही रहस्य देने चाहिए। वही मुनि गीतार्थ है जो ठीक निर्देश के अनुसार आचरण करता है, उसे ही रहस्य जानने का अधिकार है । . मुनियों की बात को मैं छोड़ देता हूं । श्रावक भी इन सब विधि-विधानों की आलोचना करते हैं । मैं मानता हूं कि आलोचना कोई बुरी बात नहीं है । वह बुरी बात तब बन जाती है जब अनधिकृत व्यक्ति आलोचना में पड़ जाता है। श्रावक का यह अधिकृत विषय नहीं है । मेरा अधिकार हो और मैं अधिकार के साथ समझ सकता हूं, जिसका प्रतिपादन कर सकता हूं, उसके बारे में समीक्षा करना मेरे अधिकार की बात हो सकती है। किन्तु जिसका मैं पूर्व-पश्चिम भी नहीं जानता, जिसका मैं 'क', 'ख' भी नहीं जानता और उसकी समीक्षा मीमांसा करने लगूं तो उस विषय के साथ न्याय नहीं कर पाऊंगा। यही नहीं, मैं अपनी मनीषा और बुद्धि के साथ भी न्याय नहीं कर पाऊंगा। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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