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२४ अनुशासन के मंत्रदाता : जयाचार्य
जयाचार्य की निर्वाण शताब्दी ‘अनुशासन वर्ष' के रूप में मनाई जा रही है। वे पहले स्वयं शासित और फिर अनुशास्ता थे। यह उनके जीवन का सूत्र अध्यात्म का सूत्र है। वर्तमान चेतना को इस सूत्र की बहुत अपेक्षा है। इसलिए आचार्यश्री तुलसी ने अनुशासन वर्ष को घोष दिया है-'निज पर शासन, फिर अनुशासन-पहले अपने मन पर, अपनी इच्छाओं और वृत्तियों पर शासन करो, फिर दूसरों पर अनुशासन करना। महामात्य कौटिल्य ने राजा के लिए इन्द्रियजयी होना आवश्यक बतलाया है। उनका चिन्तन था कि यदि शासक इन्द्रियजयी नहीं होता है तो वह प्रजा के लिए राह-केतु बन जाता है। सभी दिशाओं से एक स्वर गूंजता है-अनुशासनहीनता बढ़ रही है, अनैतिकता बढ़ रही है, समाज का क्या होगा? राष्ट्र का क्या होगा? समस्या का चित्रण करने से समस्या का समाधान नहीं होता। उसके लिए उपाय खोजना जरूरी होता है। शिक्षा एक उपाय है अनुशासन को लाने का, पर वह स्वयं दलीय राजनीति के दलदल में फंसी हुई है। रेडियो, टेलीविजन और समाचारपत्र-ये सब विचार-परिवर्तन के माध्यम हैं। पर ये भी क्या करें? इनका काम है घटनाओं को प्रसारित करना। जब घटनाएं ही हिंसा, आक्रमण, उपद्रव, बलात्कार और लूट-खसोट की होती हैं, तो उन्हें प्रसारित किए बिना ये कैसे रह सकते हैं? इन्हीं घटनाओं की पुनरावृत्तियां मनुष्य को अनुशासनहीन बनाए बिना कैसे रह सकती हैं? अनुशासनहीनता का एक चक्र है। पूरा समाज उसकी पकड़ में है।
जयाचार्य आचार्य भिक्षु के भाष्यकार थे। आचार्य भिक्षु ने साधन-शुद्धि पर बहुत विचार किया था। हिन्दुस्तान के दो हजार वर्ष के दार्शनिक इतिहास में दो ही व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिन्होंने साधन-शुद्धि पर
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