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१३८ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
आचार्य भिक्षु ने अनुशासन की परम्परा का सूत्रपात किया था। जयाचार्य इसी परम्परा में पले-पुसे थे। अनुशासन उन्हें विरासत में मिला था। आचार्य ऋषिराय उनके गुरु थे । वे बहुत ऋजुमना और मृदु प्रकृति के थे, किन्तु अनुशासन के क्षेत्र में बहुत दृढ़ थे। एक मुनि को वस्त्र की सिलाई करनी थी। वह गृहस्थ के घर से सूई ले आया। सूई लाए या धागा लाए या और कुछ भी लाए, व्यवस्था है कि आचार्य या अग्रणी की आज्ञा लेकर लाए। वह मुनि आज्ञा लिये बिना सूई ले आया। ऋषिराय को पता चला। उन्होंने पूछा-तुम आज्ञा लिये बिना सूई कैसे ले आए? वह बोला-सूई के लिए क्या आज्ञा लेनी थी? आचार्यवर ने कहा-प्रश्न सई और चाकू का नहीं है, प्रश्न आज्ञा का है। सूई छोटी हो सकती है पर अनुशासन का भंग छोटा नहीं होता, यह कहते हुए ऋषिराय ने उसका संघ से संबंध-विच्छेद कर दिया। जयाचार्य इस घटना के साक्षी थे। वे अनुशासन का बहुत सूक्ष्मदृष्टि से अध्ययन करते रहते थे। अनुशासन के तटबंध में एक छोटा-सा छिद्र बड़ा रूप ले सकता है और तटबंध को तोड़ सकता है, इस संचाई से वे परिचित थे। तेरापंथ के द्वितीय आचार्य भारमलजी स्वामी ने अपने उत्तराधिकार का पत्र लिखा। उसमें उन्होंने दो नाम लिख दिए-खेतसी तथा रायचन्द। जयाचार्य उस समय सत्रह वर्ष की अवस्था में थे। एक तरुण मुनि के रूप में अपना अध्ययन और साधना कर रहे थे। उन्हें इस बात का पता चला। वे आचार्ग भारमलजी के पास गए। वंदना कर, बद्धांजलि हो, विनम्र स्वर में बोले-गुरुदेव! आपने आचार्य पद के लिए दो नाम लिखे हैं। इस पर आप पुनर्विचार करें। ये दो नाम अनुशासन और व्यवस्था के लिए उलझन पैदा कर सकते हैं। आचार्य ने सहज-सरल भाव से उत्तर दिया-जीतमल! खेतसी मामा है और रायचन्द उसका भानजा। इसलिए कोई उलझन पैदा नहीं होगी। मुनि जीतमल ने प्रार्थना की-मामा-भानजा या पिता-पुत्र कोई भी हों, जहां दो होंगे वहां उलझन की संभावना होगी। इसलिए आचार्यपद के लिए एक ही नाम का उल्लेख होना चाहिए। आचार्यवर ने तरुण मुनि का सुझाव स्वीकार कर लिया और मुनि खेतसीजी का नाम वहां से हटा दिया। ___ जयाचार्य ने अनुभव किया कि संविभाग और समतापूर्ण व्यवहार के
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