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अमृत महोत्सव : अभिनन्दन १४६ होता। मैं मानता हूं कि जब व्यक्ति में सत्य की निष्ठा, सत्य की श्रद्धा
और विश्वास जाग जातो है तो सब कुछ घटित हो जाता है। अभी बहुत ठीक कहा गया कि व्यक्ति बंधा होता है। बिल्कुल नहीं छूट पाता। बड़े बंधन से बंध जाता है तो उसके सारे छोटे बंधन की इकाइयां टूट जाती हैं। एक ऐसा बंधन मुझे मिला, मैंने देखा कि जब तक धार्मिक लोग अध्यात्म की सीमा में नहीं जाते, तब तक न तो उन्हें धर्म मिलता है, न उन्हें आत्मसंतोष मिलता है, केवल. उन्हें लड़ाइयां, झगड़े और कलह मिलता है। झगड़ा चल रहा है, धर्म नहीं चल रहा है। हमने प्रयत्न किया अध्यात्म में जाने का।
आज हमें इस बात का गर्व है कि अध्यात्म के क्षेत्र में आचार्यश्री तुलसी के नेतृत्व में जो काम हुआ है, आज वह सर्वमान्य हो गया है-जैन-अजैन, हिन्दू-मुलमान-ईसाई का प्रश्न ही समाप्त हो गया। हमारे सामने केवल आदमी रहा। आदमी ही नहीं रहा-चैतन्य रह गया। आदमी ही समाप्त हो गया। आदमी रहता है तो भी विग्रह खड़ा होता है, फिर पुरुष और स्त्री का संघर्ष खड़ा हो जाता है। वह भी समाप्त हो गया और एक प्रकार से हम भूल गये सारी बातों को, इतना भुलक्कड़ शायद ही कोई आदमी होता होगा। ___ मैं मानता हूं-स्मृति जीवन की यात्रा को चलाने के लिए बहुत आवश्यक तत्त्व है तो विस्मृति भी जीवन की यात्रा नहीं, किन्तु सत्य की परम यात्रा के लिए एक बहुत बड़ा तथ्य है। हम स्मृति और विस्मृति का योग नहीं जानते। हम संतुलन करना नहीं जानते इसलिए परम सत्य की यात्रा में प्रस्थान नहीं कर सकते। मुझे प्रसन्नता है कि आचार्य तुलसी ने मुझे एक ऐसा अभियान दिया और पहले ऐसा अलंकरण दिया जो बुद्धि से जुड़ा हुआ नहीं है। प्रज्ञा अलग बात होती है, बुद्धि अलग बात होती है। महर्षि पतंजलि ने कहा "ऋतंभरा प्रज्ञा ! उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान् महावीर के लिए एक विशेषण आता है महाप्रज्ञ! महाप्रज्ञ कोई पढ़ा हुआ आदमी नहीं होता। विद्वान् आदमी नहीं होता। आज के विश्वविद्यालय की डिग्री का धारक व्यक्ति नहीं होता। मैं तो ऐसा हूं कि विश्वविद्यालय की बात तो छोड़ दूं-पहली कक्षा का भी प्रमाण पत्र नहीं। फिर कैसे महाप्रज्ञ हो सकता है कोई ! मैंने पाया कि प्रज्ञा जागती
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