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१०६ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ कठोर हैं, पर वास्तव में हैं कठोर । आपका कठोर अनुशासन मेरे लिए वरदान बना। बचपन से ही मैंने अपने जीवन के दो सूत्र बनाये थे
१. मैं वैसा काम कभी नहीं करूंगा, जिससे मुनि तुलसी (आचार्य तुलसी) अप्रसन्न हों।
२. मैं सदा अपने पर अधिक केन्द्रित होऊंगा, दूसरे पर नहीं। ___ इन दोनों सूत्रों ने मेरा निर्माण किया। मैं दिन-प्रतिदिन आगे बढ़ता ही गया। मुझे स्मृति में नहीं कि मैंने कभी किसी का अहित सोचा होचाहे फिर वह मेरा निकट का हो या दूर का। मैं अपना काम करता रहा। संवत् २०१२ में जब आगम-संपादन का कार्य-भार आया तब मैंने दो सूत्र और बनाये।
१. दिन को मैंने तीन भागों में बांटा-. (क) पहला भाग-आनन्द की आराधना। (ख) दूसरा भाग-ज्ञान की आराधना। (ग) तीसरा भाग-शक्ति की आराधना।
दिन के प्रथम भाग में मैं अपना लेखन करता। कभी किसी विषय पर और कभी किसी विषय पर। दिन के दूसरे भाग में मैं आगम-संपादन में जुट जाता। इससे ज्ञान की आराधना होती। रात में मैं ध्यान आदि में संलग्न हो जाता।
यह मेरी शक्ति की आराधना थी। इस प्रकार के विभाग के कारण आनन्द, ज्ञान और शक्ति बढ़ती ही गई। कभी थकान महसूस नहीं हुई। सदा ताजगी बनी रही।
दूसरा सूत्र था-निःशेष की अवधारणा। जब मैं. कोई काम करके उठता हूं तब सोचता हूं कि अब कुछ भी कार्य शेष नहीं रहा। जो संपन्न होना था, वह हो गया। इस चिंतन ने मुझे उबारा। काम से थकान नहीं आती, काम की चिंता से थकान आती है। काम से तनाव नहीं आता, काम की चिंता से तनाव आता है। निःशेष चिंतन वास्तव में शक्ति संवर्धन का, चिंता मुक्ति का चिंतन है। ___आज मैं पूज्यवर कालूगणी को भावांजलि अर्पित करता हूं जिन्होंने मुझे दीक्षा देकर कृतार्थ बनाया। आज मैं आचार्य तुलसी के प्रति भाव भीना नमन करता हूं, जिन्होंने मुझे बिन्दु से सिन्दु बना डाला। एक
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