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११० अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ संस्कार राग से ऊपर उठ आया। मैंने मुनि बनने की भावना प्रकट की। माताश्री ने कहा-मेरी भी यही इच्छा है। उस समय तेरापन्थ के आठवें आचार्य कालूगणी थे। वि. संवत् १६८७ के भादवें में मैं विरागी बना
और माघ शुक्ला १० को अपनी माताश्री के साथ मुनि बन गया। इस तीसरे मोड़ में जीवन के संबंध व्यापक हो गये। कालूगणी का वरदहस्त मेरे सिर पर टिका। मैंने अज्ञात के विशाल पथ पर नई यात्रा शुरू कर दी। ___ मैं ज्ञात के निर्माण में अज्ञात का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण योग मानता हूं। पुरुषार्थ का अस्तित्व मानता हूं और यह भी जानता हूं कि रुचि के निर्माण में परिस्थिति का बहुत बड़ा हाथ होता है। पर इन सबके उपरान्त भी अज्ञात जो है, वह ज्ञात से अधिक क्षमताशील है। हम इसीलिए बहुत बार विफल होते हैं कि हमारा तर्क ज्ञात से आगे नहीं दौड़ता। सबसे बड़ी देन परम पूज्य कालूगणी ने मेरी जीवन-नौका का कर्णधार तुलसी को चुना। कुशल कर्णधार के हाथ में वह सुरक्षित है। वह अनेक विशाल सरिताओं
और सागरों का पार पा चुकी है। अब उस सागर की गोद में है, जिसका तट उसका अग्रिम विश्राम होगा। मेरे गुरुवर आचार्यश्री तुलसी व्यक्ति-निर्माण में अधिक विश्वास करते हैं। उन्होंने मुझे शक्ति का मन्त्र दिया। मैंने उसकी उपासना की। मुझे हर्ष है कि उपासना में मेरी तन्मयता कभी भंग नहीं हुई। मेरे गुरुवर ने मुझे विद्या-दान दिया, और भी जो प्राप्य थे, वे दिए पर मेरे लिए उनकी सबसे बड़ी देन है-अप्राप्य को प्राप्य बनने की तन्मयता। उसी से मैं अध्यात्म की गहराई में जाने को बार-बार प्रेरित हुआ हूं। मेरी चैतन्य वीणा का हर तार इस गान से झंकृत है कि इससे बड़ा वरदान कोई नहीं है।'
* चालीसवें वर्ष प्रवेश पर लिखित निबंध।
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