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१७. वरदान
आज मैं चालीसवें वर्ष में हूं।.कभी एक क्षण का था। क्षणों ने मिल घड़ी का बनाया, घड़ियों ने पहर का, पहरों ने दिन का, दिनों ने महीनों का, महीनों ने वर्ष का। एक पर एक वर्ष आते गए। आज चालीसवां वर्ष आ खड़ा हुआ है। समय की सुई सदा घूमती है, वह कभी नहीं रुकती। ___ मनुष्य अज्ञात-प्रदेश से आता है और अज्ञात-प्रदेश में चला जाता है। मध्य का विराम ज्ञात होता है। उसमें कितने ही अज्ञात संबंध जुड़ जाते हैं। अंतरात्मा का कथन मैंने एक छोटे-से कस्बे में जन्म लिया। जन्म के समय मनुष्य क्या जानता है, यह हम लोग, जो बड़े हो गए हैं, नहीं जान पाते। जन्म क्यों होता है? यह प्रश्न उस समय नहीं होता। यह प्रश्न तब उठता है, जब जीवन की दूसरी मंजिल की ओर हमारे चरण बढ़ चलते हैं। वह दूसरी मंजिल है- मृत्यु। मृत्यु की मीमांसा भी मृत्यु के परिपार्श्व में उग्र बन जाती है। ये दोनों अज्ञातवास की धाराएं हैं। इसका रहस्योद्घाटन तर्क की पृष्ठभूमि पर नहीं होता। मनुष्य ज्ञात के किंवाड़ों को भी पूरा नहीं खोल पाता। शब्दों को चुनने वाला माली कोई विरला ही होता है। भावों की ऊर्मियां प्रायः सागर के भीतर ही विलीन हो जाती हैं। मैं नहीं कह सकता कि मैंने अपने पिता को देखा। मैं ढाई मास का था, पिता इस संसार से चल बसे। मेरी अंतरात्मा कहती है-मैंने उन्हें देखा। उस समय का चित्र मेरी आंखों में अंकित है।
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