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१२० अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ मेरे चक्रवर्ती होने में?” सेनापति ने विनम्र स्वर में कहा-“सम्राट् ! मैं नहीं कहता, वह अवरोध पैदा करेगा। यह मैं कह सकता हूं, चक्र आयुधशाला में प्रवेश नहीं कर रहा है। उसका कारण बाहुबलि का आपके चक्रवर्तित्व में विश्वास न होना ही है।"
भरत ने सेनापति से विमर्श कर बाहुबलि के पास अपने दूत को भेजा। दूत तक्षशिला में पहुंच बाहुबलि के सामने उपस्थित हो गया। बाहुबलि ने भरत का कुशल-क्षेम पूछा। दूत बाहुबलि के तेज से अभिभूत हो गया। वह मौन रहा। कहना चाहते हुए भी कुछ कह नहीं पाया। बाहुबलि ने उसकी आकृति को पढ़ा। स्वयं बोल उठे-“भाई भरत में
और मुझमें आज भी प्रेम और सौहार्द है। पर क्या करें? हम दोनों के बीच देशान्तर. आ गया, जिस प्रकार प्रेम से भीगी हुई आंखों के बीच नाक आ जाती है। दूत! पहले मैं भाई के बिना मुहूर्त भर भी नहीं रह सकता था किन्तु आज मेरी आंखें उसे देखने को प्यासी हैं। वे उपवास कर रही हैं। उसे देख नहीं पा रही हैं। इसलिए ये दिन मेरे व्यर्थ बीत रहे हैं। मैं उस प्रीति को स्वीकार नहीं करता, जिसमें विरह होता है। यदि हम वियुक्त होकर भी जी रहे हैं तो इसे प्रीति नहीं, रीति ही समझना चाहिए।” दूत बाहुबलि की बातें सुन पुलकित हो उठा। उसने सोचा-मुझे भरत का संदेश बाहुबलि को देना ही नहीं पड़ा। यह भरत से बहुत प्यार करता है। मुझे पूरा विश्वास है कि मुझे अकेला नहीं लौटना पड़ेगा। मैं बाहुबलि के साथ ही भरत के चरणों में उपस्थित होऊंगा। दूत नहीं जानता था कि प्रेम और स्वतन्त्रता दोनों अलग-अलग हैं। बाहुबलि प्रेम करना जानता है, पर स्वतन्त्रता को बेचना नहीं। बाहुबलि ने दूत के स्वप्न को भंग करते हुए कहा-“दूत! पिताश्री ने मुझे एक स्वतन्त्र राज्य सौंपा है, इसलिए मैं अयोध्या जा नहीं सकता। मेरा हृदय वहां जाने के लिए वैसे ही उत्कंठित है, जैसे रात के समय चकवा चकवी से मिलने के लिए उत्कंठित रहता है। दूत! तुम बोलो, मौन क्यों बैठे हो? भरत ने तुमको किसलिए यहां भेजा है, उसे स्पष्ट करो?" बाहुबलि की वाणी से दूत में कुछ प्राण-संचार हुआ। वह साहस बटोर कर बोला- “महाराज! आपको पता है आपके भाई भरत दिग्विजय कर अयोध्या लौट चुके हैं। उनकी सभा में संसार के सभी राजे हैं। वे
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