________________
२१. भगवान महावीर की प्रथम ज्योति
भगवान् बाहुबलि
स्वतंत्रता मनुष्य की अमिट चाह है। कोई भी मनुष्य किसी की अधीनता को स्वीकार करना नहीं चाहता। पर इस चाह की एक बाधा है। वह है पराक्रम और शक्ति-संचय। पराक्रमी मनुष्य दूसरों को अधीन बनाना अपना जन्मजात अधिकार मान लेता है। जो शक्ति-संचय कर लेता है, उसकी मान्यता भी ऐसी हो जाती है। चक्रवर्ती भरत पराक्रमी थे और दिग्विजय के द्वारा उन्होंने शक्ति-संचय भी कर लिया था। उन्होंने सैकड़ों-सैकड़ों राजाओं की स्वतंत्रता छीन ली। संकल्प किया कि प्रत्येक राजा उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करे, अन्यथा वे दिग्विजय की यात्रा को संपन्न नहीं करेंगे। और सब राजे उनकी शक्ति के सामने नत-मस्तक हो गए। केवल बचे थे निन्यानबे भाई। अट्ठानबे भाई भगवान् ऋषभ के पास दीक्षित हो गए। अब शेष रहे बाहुबलि। भरत ने उन्हें भी निमंत्रित किया अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए, पर बाहुबलि स्वतंत्रता के संरक्षक थे। परतंत्र होने की कल्पना भी उनके मानस में नहीं थी। भरत की इस साम्राज्यवादी मनोवृत्ति से उनके मन को बड़ा आघात लगा। वे भाई से लड़ना नहीं चाहते थे और अपनी स्वतंत्रता को खोना किसी भी मूल्य पर उन्हें स्वीकार्य नहीं था। दोनों विरोधी धाराओं के बीच उन्होंने भाई से लड़ना स्वीकार किया। स्वतंत्रता को बलिवेदी पर चढ़ाना उन्हें मान्य नहीं हुआ।
यदि बाहबलि भरत की विशाल सेना को देख भयभीत हो जाते तो स्वतंत्रता की लौ प्रज्वलित नहीं रहती। आज भी स्वतंत्रता की लौ प्रज्वलित है, उसकी पृष्ठभूमि में बाहुबलि का अदम्य साहस एक प्रेरक तत्त्व के रूप में काम कर रहा है। साम्राज्यवादी शक्तियों की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org