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महावीर को पूजें या समझें? ११५ पीढ़ी में हो सकता है, कुछ बची भी हो किन्तु आज की नई पीढ़ी में यह संस्कार समाप्त हो गया है कि अहिंसा भी हमारे लिए उपादेय है या उसके द्वारा हमारे जीवन की कोई समस्या सुलझाई जा सकती है आज हमने एकमात्र विकल्प चुन लिया है हिंसा, हिंसा की भाषा। सरकार से कोई बात मनवानी है तो हिंसा करनी होगी और सरकार भी कोई बात मानेगी तो तब मानेगी जब सामने हिंसा आ जाती है। यह गोली की भाषा जो चल रही है और इस गोली की भाषा में जिसका विश्वास हो गया, मैं समझता हूं कि यह भूल हो गई प्रकृति की। महावीर को ढाई हजार वर्ष पूर्व नहीं, उन्हें आज जन्मना चाहिए था। कितना अच्छा होता यदि महावीर जैसा तेजस्वी और पराक्रमी व्यक्तित्व आज इस धरती पर जन्म लेता और हमारे बीच होता। हमारी कितनी गलत धारणाओं और गलत उपक्रमों को बदलने के लिए कोई उपक्रम प्रस्तुत करता। महावीर चक्षुदाता थे।
पुराने जमाने की बात है। एक वैद्य के पास एक अंधा व्यक्ति गया। जाकर बोला- 'वैद्यप्रवर! इस शहर में कितने लोग कपड़े रखने वाले हैं और कितने व्यक्ति बिना कपड़े वाले, मुझे गिनकर आप बता दीजिए।' वैद्य ने कहा- 'मैं कहां निकम्मा बैठा हूं, जो तुम्हारी गिनती करता फिरूं । मैं किस-किस के पास जाऊं? मैं एक काम कर देता हूं कि तुम्हारी आंखों को ठीक कर देता हूं।' उसने एक अंजन लगाया। जिससे आंखें खुल गईं। वैद्य ने कहा-'अब जाओ और देख लो कि कौन वस्त्र रखने वाला है और कौन बिना वस्त्र का।'
जो आदमी आंख देता है, वह दर्शन देता है, वह सब कुछ देखने की ताकत देता है। भगवान् महावीर ने एक ऐसा अंजन आंजा कि हमें देखने के लिए दृष्टि दी। मैं देखता हूं कि ढाई हजार वर्षों की अवधि में, समूचे सहित्य में, समूचे भारतीय चिंतन में महावीर अपने प्रकार का अकेला व्यक्तित्व है। मैं जैन मुनि हूं, महावीर का अनुयायी हूं इसलिए यह बात नहीं कर रहा हूं। मेरे आचार्य ने मेरी भी आंख में कोई ऐसा अंजन आंज दिया कि मुझे ऐसा नहीं लगता कि जैन हो, वह तो अच्छा ही होता है और बौद्ध होता है या और कुछ होता है, वह खराब होता है। मैं तो विचारों को देखता हूं। जिसका विचार मुझे गहराई में लगता
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