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१०२ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ प्रबलतम आकांक्षा है। गुरु ने पूछा, क्या आकांक्षा है? शिष्य ने कहा कि सत्य की उपलब्धि के सिवा मेरे जीवन की और कोई आकांक्षा नहीं है। मैं सत्य की उपलब्धि करना चाहता हूं। केवल सत्य को उपलब्ध होना चाहता हूं। गुरु ने पूछा-कलकत्ता में चावल के भाव क्या हैं? शिष्य ने कहा-'गुरुदेव! मैंने कलकत्ता छोड़ दिया है। अब मुझे चावल के भाव से कुछ भी लेना-देना नहीं है। गुरु ने कहा-'जाओ, तुम साधना करो। सत्य तुम्हें अवश्य उपलब्ध होगा। शिष्य ने कहा- 'कैसे उपलब्ध होगा? गुरु ने कहा- 'जो अतीत को छोड़ देता है, वह सत्य को अवश्य उपलब्ध हो जाता है।' ___अतीत को विस्मृत कर देना सत्य के लिए बहुत जरूरी है किन्तु अतीत की पकड़ इतनी मजबूत होती है कि छोड़ने पर भी वह कभी-कभी फिर से बांध लेती है। जिस अतीत को मैं भुलाना चाहता हूं, उस अतीत को ही मेरे सामने उपस्थित कर दिया गया। सारी बचपन की स्मृतियां ताजा हो गईं। मुझे याद है-मैं बहुत छोटा बच्चा था। दस वर्ष का था। मेरे मन में दीक्षा का भाव जागा। यह संयोग की बात है कि गंगाशहर से ऐसा ही कोई संबंध जुड़ा हुआ है। सर्व प्रथम दीक्षा का भाव लेकर इसी गंगाशहर में उपस्थित हुआ। मुझे संकेत मिला कि तुम गंगाशहर जाओ तो मुनि तुलसी के दर्शन जरूर करना। मैं गया और दर्शन किए। पता नहीं पूर्व जन्म के संस्कार थे। आपने पूछा-कौन हो, कहां से आए हो? मैंने बताया किन्तु बोला विशेष नहीं और आपने कुछ विशेष पूछा भी नहीं। किन्तु जो एक तादात्म्य जुड़ना चाहिए था, वह वहां से ही जुड़ गया। ऐसा सम्बन्ध हुआ कि शायद जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती।
अमाप्य वात्सल्य दीक्षित होते ही पूज्य कालूगणी ने आपके पास भेज दिया। मैं छोटा था, आप भी बहुत बड़े नहीं थे। केवल छह, साढ़े छह साल का अन्तर। किन्तु आपका इतना कठोर अनुशासन कि मन ही मन में थोड़ा कंपन-सा हो गया। किन्तु बहुत नहीं अखरा। इसलिए नहीं अखरा कि जितना कठोर अनुशासन था, उससे भी अनुपात में ज्यादा प्रेम का सागर
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