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२८ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ किया जा सकता। अन्वेषण, प्रशिक्षण, पद्धति-तीनों की युगपत् अवस्थिति होने पर कार्य को आगे बढ़ाया जा सकेगा। विकास परिषद् उसमें बहुत सहयोगी बनेगी। स्वयं अच्छा बने बिना दूसरों को अच्छा बनाने के प्रयत्न में हमारा विश्वास नहीं है। केवल संचार माध्यमों से होने वाली व्यापकता को हम अर्थहीन मानते हैं। सार्थक प्रयत्न करने के लिए स्वयं आध्यात्मिक बनकर दूसरों को आध्यात्मिक बनाना अपेक्षित है। आपके सामने एक ओर साधु-साध्वी समाज है, दूसरी ओर श्रावक-श्राविका समाज है। तीसरी ओर संपूर्ण मानव जाति है। एक आचार्य के रूप में आपका इनके लिए क्या संदेश है? अहंकार और ममकार का विसर्जन अध्यात्म के प्राणिक स्पन्दन हैं। आचार्य भिक्षु ने इन स्पन्दनों को संयोजित कर तेरापंथ की प्रतिमा का निर्माण किया था। उस प्रतिमा की निरन्तर प्रेक्षा करते रहें, यह पर्याप्त है सफल साधु या सफल साध्वी होने के लिए। जहां अहंकार नहीं है, वहां शेष बचती है विनम्रता। जहां ममकार नहीं है, वहां शेष बचती है सहिष्णुता। ये व्यवहार-पुरुष के दो चक्षु हैं। इनका उपयोग साधु संस्था को चिरजीवी बनाता है। साधुता की संजीवनी को प्राप्त कर विकास की दिशा में हमारे चरण आगे बढ़ें, प्रकाश की उपलब्धि अपने आप होगी।
श्रावक समाज धर्म के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण अपनाए। आचार्य भिक्षु ने सामाजिक अनुबंधों से दूर रखकर धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की व्याख्या दी। श्रावक समाज उसे गहराई से समझने का यत्न करे। धर्मक्रान्ति अथवा आध्यात्मिक प्रयोग के साथ अपने चरण आगे बढ़ाए
और इस नई धारा को जन-जन तक पहुंचाने की बात सोचे। ___ अर्थप्रधान युग है किन्तु अर्थ को सब कुछ न माने। वैज्ञानिक युग है किन्तु विज्ञान को अन्तिम सत्य या परम सत्य न मानें। बौद्धिक या तार्किक युग है किन्तु बुद्धि और तर्क को ज्ञान की अन्तिम सीमा न मानें। यह सापेक्ष सत्य का दृष्टिकोण मानव जाति के शुभ भविष्य का मंगलपाठ होगा। * आचार्य पदाभिषेक के प्रसंग पर दिया गया एक ऐतिहासिक साक्षात्कार।
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