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६८ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
नहीं चला, किन्तु मूक प्रश्नोत्तर बहुत लंबा चला और वह गहरे में उतर गया। हमने दीक्षा के लिए प्रार्थना की और उसकी पूर्व-स्वीकृति मिल गई। उस दिन वहां रुके और फिर गांव चले आए।
दीक्षा
टमकोर एक छोटा गांव है । उस समय वहां कोई राजकीय विद्यालय नहीं था। मैं गुरुजी की पाठशाला में पढ़ा। वर्णमाला पढ़ी, कुछ पहाड़े पढ़े, और कुछ विशेष पढ़ने का योग नहीं मिला । ग्यारहवां वर्ष आधा बीता । माघ शुक्ला दसमी, वि. सं. १६८७ के दिन पूज्य कालूगणी का वरदहस्त हमारे सिर पर टिका । मैं मेरी माता के साथ दीक्षित हो गया । हमारी दीक्षा भंसालीजी के बाग में हुई। वहां से प्रस्थान कर पूज्य कालूगणी गधैयों के नोहरे में आए। वहीं उनका प्रवास था । वहां पहुंचते ही उन्होंने मुझे निर्देश दिया- 'तुम तुलसी के पास जाओ, वहीं तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा होगी।' गंगाशहर में अज्ञात की उर्वरा में एक बीज - वपन हुआ था, उसे अब अंकुरित होने का अवसर उपलब्ध हो गया ।
अज्ञात की प्रेरणा
मुनि दीक्षा स्वीकारने के पश्चात् क्या करना चाहिए - इसकी दिशा मेरे सामने स्पष्ट नहीं थी । अज्ञात जब सक्रिय होता है तब ज्ञात की दिशा स्पष्ट नहीं होती । शायद ऐसा भी होता होगा कि ज्ञात की दिशा स्पष्ट होने पर अज्ञात की सक्रियता कम हो जाती है । लोगों ने मुझे बहुत बार पूछा- आप इतनी छोटी अवस्था में मुनि क्यों बने ? मैं इसका क्या उत्तर देता? कुछ गढ़े- गढ़ाये उत्तर होते हैं। मैं उनमें कम विश्वास करता हूँ । इसलिए मैं नहीं कहता कि मुझे संसार असार लगा इसलिए मैं मुनि बन गया। अथवा जन्म-मरण के चक्र से डरकर मैं मुनि बन गया । अथवा नरक के भय और स्वर्ग के प्रलोभन से मैं मुनि बन गया। मैं एक ही उत्तर देना पसन्द करूंगा और वही उत्तर देता रहा हूं कि कोई अज्ञात की प्ररेणा थी और ज्ञात जगत् की घटना घटी, मैं मुनि बन गया। हम अज्ञात को छोड़कर केवल ज्ञात को समझने का प्रयत्न करते हैं, केवल उसके आधार पर निष्कर्ष निकालना चाहते हैं, वह सच होने पर भी
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