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अतीत का अनावरण ७५
रखी गई, पूज्य गुरुदेव मुस्करा दिए। उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की। मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी वहीं बैठे थे । उन्होंने कहा - नाथूजी (वे मुझे इसी संबोधन से संबोधित किया करते थे) के अक्षर तो छत पर सुखाने जैसे हैं। छत पर उपले सुखाए जाते हैं । ये अक्षर भी वैसे ही टेढ़े-मेढ़े हैं। यह था उनके कहने का भाव । मुझे कुछ संकोच का अनुभव हुआ। बात वहीं समाप्त हो गई । अन्तर्मन में बात समाप्त नहीं हुई । 'मैं पीछे नहीं रहूंगा, सबसे आगे जाऊंगा' - अन्तश्चेतना में यह संकल्प जाग गया और दीक्षा-पर्याय के तीन वर्ष पश्चात् वह संकल्प बाह्य जगत् में प्रकट होने लगा ।
आंखों में दाने
पूज्य कालूगणी बीकानेर राज्य के थली प्रदेश से प्रस्थान कर जोधपुर चातुर्मास करने जा रहे थे | डीडवाना पहुंचते-पहुंचते मेरी आंखों में 'दाने' पड़ गए। उपचार किया पर कोई लाभ नहीं हुआ। आंखों से पानी बहने लगा। पाठ बिल्कुल बन्द हो गया । मेरे सहपाठी साधुओं को आगे बढ़ने का अच्छा मौका मिल गया। डीडवाना में मुनि तुलसी को नाममाला सुना रहा था । उच्चारण में अशुद्धियां आने लगीं । मुनिवर ने उलाहने के भाव में कहा- मैं तुम्हें आगे कुछ नहीं पढ़ाऊंगा। आगे का अध्ययन बन्द करो। जो ग्रन्थ कंठस्थ किए हुए हैं, उन्हें शुद्ध करो, फिर आगे बढ़ो । पाठ शुद्ध कैसे हुआ?
हम विहार करते-करते लूनी जंक्शन पहुंचे। पूज्य कालूगणी ने बालोतरा की ओर विहार किया और मेरी आंखों से पानी ज्यादा गिरने लगा, इसलिए मुझे मुनि हेमराजजी के साथ जोधपुर भेज दिया। पढ़ना बिलकुल बन्द था। मुनि हेमराजजी ने मुझे प्रोत्साहित किया - तुम प्रतिदिन कंठस्थ पाठ का जितना पुनरावर्तन करोगे उतना मैं अंकित करता जाऊंगा और पूज्य कालूगणी के यहां पधारने पर उन्हें सब निवेदित कर दूंगा। मैंने पुनरावर्तन शुरू किया। अभिधान चिन्तामणि के पन्द्रह सौ से अधिक श्लोक हैं। एक दिन में कई बार उनका पुनरावर्तन कर लेता। ढाई मास के पश्चात् गुरुदेव चातुर्मास के लिए वहां पधारे । मुनि हेमराजजी ने मेरे पुनरावर्तन का लेखा-जोखा उनके चरणों में प्रस्तुत
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