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अतीत का अनावरण ६१
भाष्य कर रहा हूं, वह दृष्टिकोण सारयुक्त और वर्तमान की समस्या को समाधान देने वाला है। प्रारंभ से ही मेरी यह दृष्टि रही कि जो दर्शन या धर्म वर्तमान समस्या का समाधान नहीं देता, वह उपयोगी नहीं हो सकता और जो उपयोगी नहीं हो सकता, वह चिरजीवी नहीं हो सकता । बासी चीज की उपयोगिता कम होती जाती है और एक दिन वह फेंक जाती है।
उन्नीसवीं सदी का नया आविष्कार
आचार्य भिक्षु ने एक सूत्र दिया था - बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों को मारना अहिंसा नहीं है। छोटे जीवों को मारकर बड़े जीवों का पोषण करना अहिंसा नहीं है । इस सूत्र ने मुझे बहुत आन्दोलित किया । मैंने मार्क्स और लेनिन के साहित्य को देखा । सामाजिक शोषण और असमर्थ लोगों के प्रति होने वाली क्रूरता के प्रति एक विशेष संवेदना जाग उठी । दान के नाम पर चलने वाले छद्म के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण निर्मित हुआ । मैंने एक लघु पुस्तिका लिखी । उसका शीर्षक था - 'उन्नीसवीं सदी का नया आविष्कार ।' इस पुस्तिका पर कुछ जैन पत्रों ने टिप्पणी की - ' मुनि नथमलजी साम्यवादी हो गए हैं।' राजनीतिक प्रणाली के अर्थ में मैं साम्यवादी नहीं बना, पर मार्क्स की विचारधारा के प्रति मेरा झुकाव निश्चित ही रहा । अच्छे साध्य के लिए अशुद्ध साधन को काम में लाया जा सकता है - इस साम्यवादी सिद्धान्त के साथ मैं कभी सहमत नहीं हो सका । आचार्य भिक्षु के 'शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधन' की अमिट छाप मेरे मन पर अंकित थी। उन दिनों गांधीजी के विचार बहुत चर्चित हो रहे थे । वे भी शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधन के सिद्धान्त पर बल दे रहे थे। दार्शनिक सन्दर्भ में आचार्य भिक्षु ने और राजनीतिक प्रणालियों के सन्दर्भ में महात्मा गांधी ने इस सिद्धान्त पर जितना बल दिया, उतना शायद कम विचारकों ने दिया । इसीलिए हरिभाऊ उपाध्याय कहा करते थे- 'अध्यात्म और राजनीति की पृष्ठभूमि को अलग रखने पर आचार्य भिक्षु और महात्मा गांधी के अहिंसा संबंधी विचार में मुझे कोई अन्तर नहीं लगता ।' आचार्य भिक्षु को पढ़ने के पश्चात् मैंने महात्मा गांधी को पढ़ा। अहिंसा के विषय में
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