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अतीत का अनावरण ८६ अच्छा लगा। कुछ मुनियों का आग्रह था कि मैं 'पचीस बोल' की हिन्दी में व्याख्या लिखू। मेरे मन में संकोच था। हिन्दी में मैंने कभी कुछ लिखा नहीं था। जो कुछ लिखना होता, वह सारा संस्कृत में ही लिखता। कभी-कभी प्राकृत में भी लिखता। ये दोनों पुरानी भाषाएं हैं। लोग इन्हें मृतभाषा कहते हैं। अतीत जीवित कैसे होगा? वह मृत ही होगा। जीवित केवल वर्तमान होता है। मैं मानता हूं, इसीलिए मैंने हिन्दी को अपनाया। वह आज की भाषा है, इसलिए जीवित है। मैं भाषा के साथ-साथ दर्शन का विद्यार्थी रहा हूं। वह मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय रहा है। उसको मैंने अनेकान्त के आलोक में पढ़ा है। अनेकान्त का विद्यार्थी किसी को सर्वथा जीवित अथवा सर्वथा मृत कैसे मान सकता है? अतीत में वर्तमान को जीवन देने की क्षमता है, तब उसे मृत ही कैसे मान सकते हैं? मैंने वर्तमान के साथ संपर्क स्थापित किया, पर अतीत के साथ स्थापित संपर्क को कभी कम नहीं किया। दोनों में संतुलन बना रहा। मैंने हिंदी में 'पचीस बोल' की व्याख्या लिखी और वह ग्रन्थ 'जीव-अजीव' के नाम से प्रकाशित हुआ। यह मेरी पहली रचना थी हिन्दी के क्षेत्र में और दर्शन के क्षेत्र में भी। अहिंसा प्रो. हीरालाल रसिकदास कापड़िया अहिंसा के बारे में एक ग्रन्थ का संकलन कर रहे थे। उन्होंने गुरुदेव के पास एक प्रस्ताव भेजा-आचार्य भिक्षु के अहिंसा संबंधी विचारों को उस ग्रन्थ में में देना चाहता हूं। मुझे हिन्दी में उनके विचारों का एक संकलन उपलब्ध कराएं। गुरुदेव उस समय चाड़वास (चूरू, राजस्थान) में विराज रहे थे। उन्होंने मुझे बुलाकर पूछा- 'क्या तुम हिन्दी में निबंध लिख सकते हो? मैंने कहा-'लिख सकता हूं।' गुरुदेव ने कहा- 'अहिंसा के संबंध में आचार्य भिक्षु के विचारों पर एक निबन्ध लिखो।' मैंने गुरुदेव के आदेश को शिरोधार्य किया और कार्य प्रारंभ कर दिया। कार्य की तात्कालिक क्रियान्विति में मेरा विश्वास रहा है, इसलिए किसी भी कार्य को अधर में लटकाए रखना मेरी प्रकृति में नहीं था। निबन्ध लिखने का कार्य शीघ्र सम्पन्न हो गया। यह 'अहिंसा' शीर्षक से एक लघु पुस्तिका के रूप में प्रकाशित
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