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१४. प्रज्ञा को भीतर ही रहने दें
मैं संसार के इस नियम को नहीं जानता कि जो सदा उलटा चलता है। जो व्यक्ति निर्विशेषण की ओर जाना चाहता है, सब विशेषणों को नीचे रखकर खुद ऊपर उठना चाहता है, जो सब उपाधियों को नीचे छोड़कर ऊपर जाना चाहता है, और पता नहीं, जगत् का नियम क्या है कि उसे फिर से नीचे लाने का प्रयत्न किया जाता है। भगवान् महावीर ने कहा-कर्म से सारी उपाधियां होती हैं और अहं के साथ सारी उपाधियां जुड़ती हैं। मैं जानता हूं-पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद मुझे मिला है और आज से नहीं तब से मिला, जब से मैं इस धर्मसंघ में दीक्षित हुआ। दीक्षित होने के बाद प्रथम अक्षर-बोध पूज्य गुरुदेव के द्वारा मुझे प्राप्त हुआ। मुझे दीक्षा लिये हुए ४८ वर्ष हो गए। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूं कि निरंतर गुरुदेव के निकट रहा। ऐसा योग बहुत कम व्यक्तियों को मिलता है और वह भी इतना निकट से मिला कि न गुरुदेव मुझमें भेद कर अनुभव करते हैं और न मैं आपमें भेद का अनुभव करता हूं। पूज्य गुरुदेव कभी नहीं कहते कि मैंने कुछ किया है। मैं पास में बैठा होता हूं। मुझे पता ही नहीं चलता कि मैं भी कुछ करने वाला हूं। सचमुच है नहीं। जहां 'हम' का ही प्रयोग होता है, वयं की भाषा होती है, वहां अहं, मैं-यह प्रथम पुरुष की भाषा नहीं होती। प्रज्ञा का महत्त्व
मैं मानता हूं कि प्रज्ञा का बहुत महत्त्व है। महर्षि पतंजलि ने पातंजल योग दर्शन में प्रज्ञा की परिभाषा की है-जिससे सत्य का साक्षात् होता है, उसका नाम है प्रज्ञा। वास्तव में धर्म को देखा जाता
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