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८० अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ वे अप्रसन्न हो जाते तो उन्हें प्रसन्न किए बिना मुझे चैन नहीं मिलता। एक बार सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् मैं उन्हें वन्दना करने लगा। मैंने विनम्र स्वर में कहा-'मेरी कोई भूल हुई हो तो मुझे बताएं। मुझे क्षमा करें। आप अप्रसन्न न रहें।' वे नहीं बोले। मैं अपना हाथ उनके पैरों में टिकाए हुए वन्दना की मुद्रा में बैठा रहा। फिर भी वे नहीं बोले। लगभग दो घंटे बीत गए। प्रहर रात आ गई। सोने का समय हो गया। वे पूज्य कालूगणीजी के पास चले गए और मैं मुनिश्री चम्पालालजी स्वामी के पास सोने के लिए चला गया। तादात्म्य मुनिश्री चम्पालालजी स्वामी मुनिवर के बड़े भाई थे। हमारी रहन-सहन की सारी व्यवस्था वे ही करते थे। हम दो व्यक्तियों के कठोर अनुशासन में चल रहे थे। मुनिश्री चम्पालालजी स्वामी का अनुशासन भी बहुत कठोर था। वे हम लोगों पर काफी कड़ा नियंत्रण रखते और थोडी-सी भूल होने पर बहुत अप्रसन्न हो जाते। उन्हें प्रसन्न करना भी कोई सरल काम नहीं था। गाय दूध देती है तो उसकी चोट भी सह ली जाती है। हमें निरंतर दूध मिलने का अनुभव हो रहा था इसलिए हम उनकी अप्रसन्नता को भी सह लेते और उन्हें प्रसन्न करने में हमें अधिक प्रसन्नता का अनुभव होता। अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति कितना पकता है और कैसे पकता है, इसका हमें अच्छा अनुभव है। हमारे अनुभव से दूसरे विद्यार्थी भी काफी लाभान्वित हो सकते हैं। अनुशासन की सबसे पहली शर्त है-तादात्म्य। उसके बिना अनुशासन करने वाला और उसे सहने वाला-दोनों ही सफल नहीं हो सकते।
अनुशासन को मैं बहुत व्यापक अर्थ में स्वीकार करता हूं। वह केवल निषेधात्मक नहीं है। अवांछनीय आचरण और व्यवहार को रोकना ही अनुशासन नहीं है। वह उसका एक छोटा-सा पक्ष है। अनुशासन का व्यापक स्वरूप है-विवेकशक्ति का विकास और नियंत्रण-शक्ति का विकास। विवेक और नियंत्रण की शक्ति का विकास होने पर व्यक्ति का जीवन स्वयं शासित हो जाता है। फिर उसके लिए दूसरे का अनुशासन जरूरी नहीं है। अनुशासन कुंठा पैदा करने की प्रक्रिया नहीं
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