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८२ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
दोपहर के समय जब एकान्त होता तब पूज्य गुरुदेव कहते - तुम चलो । मैं चलता तब उनका निर्देश मिलता-पैर ठीक ढंग से रखो। न जाने कितनी बार चलने का अभ्यास कराया। मैं मानता हूं कि यह मुझे गतिमान् बनाने का ही प्रयत्न था । कुछ छोटी-छोटी बातों से जीवन का निर्माण कैसे होता है, इसे केवल बड़ी बातों में विश्वास करने वाले नहीं समझ पाते। हम लोग स्थान से बाहर जाते हैं तब 'पछेवड़ी' के गांठ लगाकर जाते हैं। मैं प्रातःकाल पूज्य गुरुदेव के साथ बाहर जाने के लिए तैयार होकर वहां चला जाता । पूज्य गुरुदेव कहते - गांठ ठीक से नहीं लगी। वे उसे अपने हाथों से खोलते और फिर अपने हाथों से ही गांठ लगाते । लम्बे समय तक यह सिलसिला चला। इस छोटी-सी घटना ने क्या यह पाठ नहीं पढ़ाया कि मन की जटिल ग्रन्थियों को खोलना हम सीख जाएं और कोई गांठ पड़े तो भी वह इतनी उलझी हुई न हो, जिसे खोलना कठिन बन जाए ।
अपाय : उपाय
मालवा की यात्रा हो रही थी। सर्दी का मौसम था । हमारी संघीय व्यवस्था के अनुसार सोने का स्थान विभाग से निश्चित होता है । हम दीक्षा - पर्याय में बहुत छोटे थे । दीक्षा - पर्याय में बड़े साधुओं को अच्छा स्थान मिल गया और हमें सोने के लिए एक खुला स्थान मिला, जिसके कई दरवाजे थे । किवाड़ बिलकुल नहीं थे । मुनिश्री चंपालालजी स्वामी को पता चला, तब वे आए और उन्होंने हम सबसे कहा- अपने-अपने सिरहाने में जो नया कपड़ा है, वह निकालो। हमने निकाल दिए। उन्होंने कपड़ों को तानकर एक तंबू- सा खड़ा कर दिया । चारों ओर से बंद एक कपड़े का कमरा बन गया। हमने सीखा - हर अपाय के लिए उपाय होता है । यदि उपाय की मनीषा जाग जाए तो अपायों को निरस्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती ।
मेरे जैसे बनोगे?
पूज्य कालूगणी की जन्मभूमि छापर में मर्यादा - महोत्सव का आयोजन हो रहा था। मुनिवर वहां नहीं थे । शारीरिक अस्वस्थता के कारण लाडनूं में
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