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अतीत का अनावरण ८१
है । वह प्रक्रिया है आत्मानुशासन को जगाने की । हम कभी-कभार कुंठा पैदा करने वाले अनुशासन की सीमा में भी रहे, पर अधिकांशतः हम आत्मानुशासन जगाने वाले अनुशासन में ही पले । इसलिए अच्छाइयों को पकड़ने में हमारी अन्तश्चेतना सदा गतिशील रही ।
गुरु का अनुग्रह
पूज्य कालूगणी का मुझ पर बहुत अनुग्रह था । वे मेरे हितों का बहुत ध्यान रखते थे । लाडनूं की घटना है । भयंकर सर्दी का मौसम । हम लोग शौचार्थ जंगल में जाते थे। मैं प्रायः पूज्य गुरुदेव के साथ ही जाता था । एक दिन दूसरी दिशा में चला गया । पूज्य गुरुदेव ने स्थान पर आते ही पूछा- नत्थू कहां है? संतों ने कहा- वह मुनि तुलसी के लिए होमियोपैथी दवा लाने के लिए गया है। उन्होंने पूछा- सर्दी बहुत है । कंबल ओढ़कर गया या नहीं? संतों ने मेरी निश्रा के उपकरण देखे । कंबल वहीं पड़ा था । पूज्य गुरुदेव ने दो साधुओं को निर्देश दिया- 'तुम कंबल ले जाओ और उसे कंबल ओढ़ा दो ।'
इस घटना की मेरे किशोर मन पर एक प्रतिक्रिया हुई । मन में अनुशासन का भाव जागा । पूज्य गुरुदेव मेरे हितों का इतना ध्यान रखते हैं तब उनका प्रत्येक आदेश-निर्देश हित की दृष्टि से ही होता है ।
एक बार दो कंबल आए। एक मुझे लेना था और एक मुनि बुद्धमल्लजी को । दोनों एक जैसे थे । एक बिलकुल साफ था । एक पर कुछ धब्बे थे। मैंने कहा- यह साफ कंबल मैं लूंगा। मुनि बुद्धमल्लजी ने भी वैसा ही आग्रह किया । हम दोनों का आग्रह देख पूज्य गुरुदेव ने वह किसी को नहीं दिया। दोनों कंबल अपनी पछेवड़ी ( चादर ) से ढांक लिये । उनके केवल दो सिरे बाहर निकाले और हम दोनों से कहा- जो इच्छा हो, वह एक सिरा पकड़ लो। हमने एक-एक सिरा पकड़ लिया । जो साफ-सुथरा था वह मुनि बुद्धमल्लजी के हिस्से में चला गया । फिर भी मैं अप्रसन्न नहीं हुआ । सहज ही मेरे मन पर एक छाप पड़ी कि समता का मूल्य प्रियता से भी ज्यादा है ।
गतिमान् बनाने के प्रयत्न
मेरी गति व्यवस्थिति नहीं थी । मैं चलता तब पैर इधर-उधर पड़ते ।
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