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७४ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ है। स्नेह मनुष्य का निसर्ग है। स्नेह की भावना के साथ जल का सिंचन पा एक पौधा भी लहलहा उठता है तब मनुष्य की बात ही क्या! मैंने ताड़ना बहुत कम पायी और स्नेह बहुत अधिक पाया। विकास का निमित्त पाने में मैं सचमुच सौभाग्यशाली हूं। हम उबर गए पूज्य कालूगणी का एक विशेष स्वभाव था। उनके पास बैठे बाल मुनियों को वे कुछ न कुछ सिखाते रहते। एक बार उन्होंने हमें संस्कृत का एक श्लोक सिखाया
बालसखित्वमकारणहास्यं, स्त्रीषु विवादमसज्जनसेवा।
गर्दभयानमसंस्कृतवाणी, षट्सु नरो लघुतामुपयाति॥ इस श्लोक का कुछ अनुदान हमें मिला। हम लघुता की दिशा में नहीं बढ़ना चाहते थे। संस्कृत के प्रति हमारा अनुराग बढ़ा और अकारण हंसने की आदत भी बदलने लगी। एक बार उन्होंने हमें दोहा सिखाया
हर डर गरु डर गाम डर, डर करणी में सार।
तुलसी डरे सो ऊबरे, गाफिल खावे मार॥ इस दोहे ने एक भावना पैदा की। हम मुनि तुलसी से डरने लगे। मैं गोस्वामी तुलसी से परिचित नहीं था। मुनि बुद्धमल्लजी भी परिचित नहीं थे। हमने उसका यही अर्थ लगाया कि पूज्य गुरुदेव हमें यह संबोध दे रहे हैं कि जो तुलसी से डरता है वह उबर जाता है। सचमुच हमने इस संबोध को स्वीकारा और हम उबर गए। मैं पीछे नहीं रहूंगा पूज्य कालूगणी हमारे अध्ययन के बारे में कभी-कभी जानकारी लेते थे। वे मुख्य रूप से मुनि तुलसी पर निर्भर थे। बीदासर की घटना है। पूज्य गुरुदेव ने सभी बाल साधुओं को हस्तलिपि दिखलाने को कहा। मेरे सहपाठी और समवयस्क सभी साधुओं की हस्तलिपि सुन्दर हो गई थी। मेरी हस्तलिपि सुन्दर नहीं बन पायी। मेरी हस्तलिपि जैसे ही सामने
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