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अतीत का अनावरण ६७ उनका देहावसान होगा गया। पिता दुःखी, माता दुःखी और पत्नी दुःखी। सारा परिवार दुःखी। मुझसे वे बहुत स्नेह रखते थे। मुझे भी बड़ा दुःख हुआ। अन्तर्मन में एक चोट लगी। जीवन के प्रति किसी अज्ञात कोने में एक अनास्था का भाव पैदा हो गया।
मनि छबीलजी का चातास हआ। मैंने जीवन का एक दशक पुरा कर लिया। दूसरे दशक में प्रवेश हो चुका था। उनके सहवर्ती मुनि मूलचन्दजी ने मुझे प्रेरित किया-मैं तत्त्वज्ञान पढूं। मैंने अध्ययन शुरू किया। एक दिन मुनिद्वय ने मुझे मुनि बनने की बहुत हल्की-सी प्रेरणा दी। मेरा अन्तःकरण झंकृत-सा हो गया, जैसे कोई बीज अंकुरित होना चाहता हो और उस पर पानी की फुहारें गिर जाएं। जैसे मेरा अन्तर्मन मुनि बनना चाहता हो और उनकी प्रेरणा की ही प्रतीक्षा हो। मुझे ऐसा ही अनुभव हुआ। मैंने अपनी मां से कहा- 'मैं मुनि होना चाहता हूं।' मां ने कहा- 'मैं भी साध्वी होना चाहती हूं पर कितना कठिन है यह मार्ग और कितनी कठिन है इसकी साधना ! तूने सोचा है? मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। अनुत्तरित को उत्तरित करना मुझे जरूरी नहीं लगा। मेरे पिता का साया मुझ पर से बहुत जल्दी उठ गया था। मैं ढाई मास का था तब उनका स्वर्गवास हो गया था। यदि कहूं तो बात अस्वाभाविक लगती है पर मेरी स्मृति कहती है कि मैंने उन्हें मृत्यु-शैया पर देखा है। भाई कोई था नहीं। दो बहनें थीं। दोनों विवाहित। दीक्षा की स्वीकृति हमने पूज्य कालूगणीजी के दर्शन करने का निश्चय किया। हम गंगाशहर पहुंचे। पूज्य कालूगणीजी के दर्शन किए। उनके प्रदीप्त मुखमण्डल की आभा और उनकी वह मुद्रा अब भी मेरी स्मृति में वैसी ही अंकित है। मुनि मूलचन्दजी ने कहा था- 'वहां तुम मुनि तुलसी के दर्शन जरूर करना। वे आयु में छोटे हैं, पर बहुत भाग्यशाली हैं। उन पर पूज्य कालूगणी की असीम कृपा है।' मैंने वहां पूछा-'मुनि तुलसी कहां हैं? एक भाई ने बताया-'वे छत पर बैठे हैं। मैं वहां गया, दर्शन किए। एकटक उनके सामने देखता रहा। उन्होंने पूछा-'कहां से आए हो? 'टमकोर से आया हूं'-मैंने उत्तर दिया। मौखिक प्रश्न और उत्तर बहुत
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