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धर्म संघ शक्तिशाली बने ६१ मैं जो साधना कर रहा हूं वह समूचे धर्मसंघ में प्रतिबिम्बित होने की बात है। तब मैं इसे बाधा कैसे मानूं? यह साधना का और आराधना का धर्मसंघ है। जैन विश्व भारती, लाडनूं में पिछले वर्ष मैंने प्रयोग शुरू किया, तो गुरुदेव ने अपना संदेश दिया। उसमें उन्होंने कहा कि यह तुम्हारा प्रयोग केवल तुम्हारा ही नहीं है, वह मेरा प्रयोग है, समूचे संघ का प्रयोग है। जब मेरे प्रयोग को गुरुदेव समूचे संघ का प्रयोग मानते हैं, उस स्थिति में समूचे संघ की साधना के निमित्त मैं सेवा करूं, तो उसमें कोई बाधा नहीं मानता, किन्तु मानता हूं कि जो मैं कर रहा हूं, उसका व्यापक प्रतिबिंब होगा, साधना को अधिक बल मिलेगा। मैं स्वतंत्र चिंतन कर रहा हूं, फिर भी यह मानता हूं कि साधना का विकास होना चाहिए। इसकी परम्परा भी होनी चाहिए, अकेला व्यक्ति कुछ करे, वह अपने लिए तो बहुत मूल्यवान् है, किन्तु वह समाज-व्यापी बने, यह और अधिक मूल्यवान् है। मैंने कभी केवली बनने की बात नहीं सोची, तीर्थंकर के चरणों का अनुसरण करने की बात सोची। केवली हर कोई व्यक्ति हो सकता है, तीर्थंकर हर कोई नहीं हो सकता। केवली
और तीर्थंकर में यही अन्तर है कि केवली अपने लिए होता है और तीर्थंकर वह होता है, जो दूसरों का भी भला कर सके, कल्याण कर सके। केवली के पदचिह्नों का अनुसरण मैंने कम किया। तीर्थंकरों के पदचिह्नों पर चलने का जो मेरा प्रयोग था, अनुसरण की प्रवृत्ति थी, उसे देखते हुए मैं कह सकता हूं कि इसमें मुझे कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। आपके मानस में तेरापंथ धर्मसंघ के विकास के लिए क्या परिकल्पना है? बचपन से ही मेरा एक चिंतन रहा कि जिस धर्मसंघ में हम हैं, वह धर्मसंघ शक्तिशाली बने। दुर्बल धर्मसंघ में रहना हमें पसंद नहीं है, मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। जो व्यक्ति स्वयं शक्तिशाली होना चाहता है और संघ को शक्तिशाली देखना चाहता है, वह कभी दुर्बलता को पसंद नहीं करता। सबसे पहले मेरे मन में कल्पना थी कि हमारा धर्मसंघ शक्तिशाली बने और शक्ति के जितने स्रोत हैं,
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