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१०. गुरु का विश्वासः उज्ज्वल भविष्य का उच्छावास
मैं सबसे पहले अपने उस गुरु को नमस्कार करता हूं, जिसने मेरी प्रज्ञा को जागृत किया और चित्त को निर्मल किया, जो भिन्न नहीं है। गुरु कभी भिन्न नहीं होता है। गुरु हो और भिन्न हो तो मानना चाहिए कि वह गुरु नहीं है। गुरु गुरु ही होगा। यह नहीं हो सकता कि गुरु भी हो और आलोच्य भी हो। दोनों बातें कभी एक साथ नहीं होतीं। मेरा बचपन का एक संकल्प था कि जिसको गुरु मान लिया, उसे गुरु ही मानना है, उसको और कुछ नहीं मानना है। गुरु भी मानते चले जाएं, और सब कुछ भी करते चले जाएं, इससे दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना जीवन में और कुछ हो नहीं सकती। गुरु अभिन्न ही होगा, आत्मा से भिन्न नहीं
होगा।
सफलता का सूत्र मैं मानता हूं, मेरे जीवन की सफलता का एक सूत्र था-मैंने मुनि तुलसी
और आचार्य तुलसी को गुरु रूप में स्वीकार किया। मैं वैसा कोई भी काम नहीं करूंगा, जिससे मुनि तुलसी और आचार्य तुलसी अप्रसन्न हों। इस सूत्र ने मुझे बार-बार उबारा और मेरा पथ प्रशस्त किया। ___ मैं आज इस श्रमण-श्रमणी परिषद् में गुरुदेव के प्रति अपनी सारी श्रद्धा समर्पित करना चाहूंगा और मानता हूं कि यह पुनरावृत्ति ही कर रहा हूं। संस्कारवश तो मैंने जिस दिन दीक्षा ली थी, उस दिन श्रद्धा ही नहीं, अपने आपको सर्वथा समर्पित कर चुका था। मेरे पास ऐसा कुछ बचा नहीं था, जिसे मैं अपना कहूं। पर इस अवसर पर उस बात को पुनः दोहराना भी चाहता हूं और इसलिए चाहता हूं कि पूज्य गुरुदेव ने अपने विश्वास को दोहराया है। मुझ पर अपना भरोसा दोहराया है। मैं
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