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५० अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
अब पूज्य गुरुदेव ने मुझे नामातीत बना दिया है। मेरा नाम भी समाप्त कर दिया। महाप्रज्ञ कोई नाम नहीं होता, यह तो स्वयं में एक पद है या कुछ है। कोई नाम तो नहीं होता। विशेषण है। गुरुदेव ने मुझे बिल्कुल अकिंचन बना दिया है। कम-से-कम व्यक्ति का नाम तो अपना होता है। उस पर अपना अधिकार तो होता है और किसी पर हो या न हो। वह भी मेरा छीन लिया। जिस नाम को बीस-तीस वर्षों के कर्तृत्व से अर्जित किया, लोग जानने-पहचानने लगे, वह भी समाप्त हो गया। जब नामातीत हो गया हूं तो संबंधातीत भी हो गया हूं। कोई संबंध नहीं रहा। किसी के साथ संबंध नहीं रहा और जब किसी के साथ संबंध नहीं होता है तो सहज ही सबके साथ हो जाता है। क्योंकि जब मुनि अवस्था में था, तब संबंध रखना भी जरूरी होता है और अपेक्षा भी होती है। किन्तु जब गुरुदेव ने मुझे यह कार्य सौंप दिया, तो किसी के साथ कोई संबंध नहीं रहा। अतीत की कोई रेखा भी मेरे मन में नहीं हो सकती कि किस व्यक्ति ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया। कितना अच्छा किया था। कितना अप्रिय भी किसी ने किया होगा। किसी ने मेरे साथ अप्रिय व्यवहार नहीं किया, यह मैं जानता हूं कि मैं इस अर्थ में भाग्यशाली रहा हूं, फिर भी कुछ हो सकता है। किन्तु अब सारे संबंध समाप्त हैं और यह कांच वैसा ही निर्मल हो गया, जिसमें कोई भी रेखा नहीं रही। मुख्य है संघ का हित संबंध कार्यों का भी होता है, पारिवारिक भी होता है और जन्मजात भी होता है। मेरी स्वर्गीया संसारपक्षीया माताजी साध्वी बालूजी आज नहीं हैं : वे भी दीक्षा में थीं। बहिन (साध्वी मालूजी) भी दीक्षा में हैं। कई बहिनें हैं। भानजियां भी हैं। कम-से-कम एक परिवार के हम सात लोग दीक्षित हुए। मेरे संसारपक्षीय पिताजी चार भाई थे और चारों के परिजन दीक्षित हैं। संबंध का अपना व्यावहारिक पक्ष होता है। किन्तु जहां संघ है, वहां और सारे संबंध गौण हो जाते हैं। वहां संबंध कभी मुख्य नहीं होता। वहां संघ मुख्य होता है, और सब बातें गौण हो जाती हैं। संघ के कार्य में किसी भी संबंध को या किसी भी निजी या निकट के
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