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५६ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ - आपने अपने बारे में कभी ऐसी कल्पना की थी क्या ? अपने भविष्य
के संबंध में आपका क्या चिंतन था? मैं तेरापंथ संघ की सेवा का कुछ विनम्र प्रयत्न कर चुका हूं। अब मेरी इच्छा थी अध्यात्म के व्यापक क्षेत्र में समग्र मानव जाति की सेवा। इस चाह ने मुझे चिंतन का नया परिवेश दिया। उस परिवेश में मेरी कल्पना थी, मैं अपने धर्मसंघ में साधना की विशिष्ट भूमिका में रहूं और उसी माध्यम से मानव जाति की सेवा करता हुआ अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढूं। संघ का दायित्व गुरुदेव किसी को भी सौंपें, उसमें न मेरा कोई हस्तक्षेप होगा और न मैं किसी व्यवस्था में भाग ही लूंगा। मैं केवल अध्यात्म की दिशा में, अध्यात्म चेतना का जागरण करने के लिए चलता रहूंगा, चलता रहूंगा। इस संबंध में मैंने कई बार गुरुदेव से प्रार्थनाएं भी की। एक बार लिखित निवेदन भी किया ध्यान की विशेष भूमिका पर आरूढ़ होने के लिए, किन्तु वैसा नहीं हो सका। अब मैं सोचता हूं कि मेरी नियति यही थी या गुरुदेव ने मेरी नियति का निर्माण इसी क्रम से गुजरने के लिए किया है, इसलिए मैं कल्पना, संभावना आदि सब स्थितियों में न उलझ अपने दायित्व का निर्वहन करने की दिशा में आगे बढूं। आप अपने नेतृत्व में धर्मसंघ को कौन-सा नया मोड़ देना चाहेंगे? हमारे सामने दो बातें हैं-अध्यात्म और समाज। समाज शक्तिशाली तब बनता है, जब वह अध्यात्म से अनुप्राणित हो, जब उसमें सांस लेने वाला हर व्यक्ति सशक्त हो। गुरुदेव ने जब मुझे समाज में काम करने का अवसर दिया है तो मैं चाहूंगा कि मेरा दर्शन समाज में क्रियान्वित हो। सुकरात का नाम सुना होगा तुमने। उसका यह सिद्धान्त था कि शास्ता किसी दार्शनिक को होना चाहिए। दार्शनिक शास्ता अपनी जनता को जीवन-दर्शन की गहराई से परिचित करा सकता है और उसे तदनुरूप व्यवहार भी दे सकता है। मेरी आकांक्षा यह है कि सबसे पहले व्यक्ति अपने जीवन का निर्माण करे। वह व्यक्तित्व निर्माण की बात को प्राथमिकता दे और संघ सेवा का काम उसके अनन्तर क्रियान्वित करे। जीवन-निर्माण का दर्शन मुझे
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