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२६ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
के सूत्र मिले हैं, उनमें मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है अनेकांत। मैंने उसको समझा है और जीया है। मैं उसे अपनी सफलता का सबसे बड़ा माध्यम मानता हूं। मैंने वीतरागता और अनेकान्त-दोनों को एक ही माना है और उसका अनुभव किया है। उसकी आगमिक मीमांसा और जीवन व्यवहार में अधिकतम उपयोग हो, यह मुझे इष्ट है और इस दिशा में मैं कुछ करना चाहता हूं। आपने इस वर्ष यह घोषणा की थी-दिल्ली, जयपुर, लाडनूं-ये तीन मुख्य केन्द्र हैं। आपने दिल्ली को पहला, जयपुर को दूसरा और लाडनूं को तीसरा केन्द्र घोषित किया। इसका उद्देश्य क्या है? इसके माध्यम से आप क्या कहना चाहते हैं? दिल्ली भारत की राजधानी है, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र है। दिल्ली में किया हुआ कार्य पूरे विश्व में सहज ही पहुंच सकता है। जैनविद्या, अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन-विज्ञान, अहिंसा का प्रशिक्षण, जैन जीवनशैली, इनको जन-जन तक पहुंचाना हमारा लक्ष्य है। पहुंचाने की सुविधा की दृष्टि से दिल्ली का स्थान पहला, जयपुर का दूसरा और लाडनूं का तीसरा है। इस क्रम का निर्धारण मैंने संप्रेषणीयता के आधार पर किया है। साधक-समण योजना का एक क्रान्तिकारी प्रारूप इन दिनों गुरुदेव ने प्रस्तुत किया है। इस योजना से आप किस प्रकार के भविष्य का
संकेत देना चाहते हैं? - हमारे पास कुछ है, उसे मैं मनोरथ नहीं मानता किन्तु यथार्थ मानता
हूं। जो है, वह किसी एक समाज के लिए नहीं, पूरी मानव जाति के लिए कल्याणकारी है। हमारे साधु-साध्वियां, समण-समणियां तथा श्रावक-समाज के कार्यकर्ता उसे जनता तक पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं। उस प्रयत्न को और शक्तिशाली बनाने के लिए और अधिक व्यक्तियों की अपेक्षा है। मेरा विश्वास है-साधक-समण श्रेणी इसमें बहुत उपयोगी बनेगी। इसका दूसरा लाभ यह है कि साधक-समण श्रेणी का सदस्य प्रशिक्षित साधक बनकर अपने लिए और अपने परिवार के लिए भी बहुत कल्याणकारी सिद्ध होगा। हमारे सामने दक्षता का प्रश्न बहुत बड़ा है। संस्था एक शक्ति है पर नम्बर दो
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