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व्यक्तित्व और कृतित्व __ सीधा-सादा रहन-सहन । साधु-जन प्रायोग्य परिमित उगकरण । धर्म, दर्शन और सिद्धान्त प्रतिपादक कतिपय ग्रन्य । बस, यही तो उपाव्याय, कविरत्न, श्रद्धेय अमरचन्द्र जी महाराज की व्यवहारदृष्टि से अपनी सम्पत्ति है-साधक जीवन की साधना के उपकरण है। संगम-स्थल :
नयी धारा और पुरानी धारा के समन्वयकारी सुन्दर संगमस्थल । वड़ों के प्रति असाधारण विनम्र, छोटों के प्रति असाधारण स्नेह-शील । जो भी पास में आया, वह कुछ-न-कुछ विचार-तत्त्व लेकर ही गया। विचारों का दान जो सभी को उन्मुक्त-भाव से देते हैं। जो कुछ पाता है, अथवा जो कुछ याया है-'उसे खुलकर प्रदान करो।' यह उनका जीवन-सूत्र है।
विचार-चर्चा में जिन्हें जरा भी लाग-लपेट पसन्द नहीं, अपितु खुलकर अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की कला, जिनकी सहज एवं स्वाभाविक है। सदा अभय, सदा अखेद और सदा अप रहने वाला एक सजग, सचेत और सफल व्यक्तित्व ।
जो प्रहार में भी प्रेम के, विरोध में भी विनोद के, दुत्कार में भी सत्कार के और एकता में भी अनेकता के अमर साकार रूप हैं। मानव होकर भी देव :
संस्कृत साहित्य में देव को निर्जर कहा जाता है, क्योंकि वह कभी बूढ़ा नहीं होता है। शरीर का वृद्धत्व कुछ अर्थ नहीं रखता। मनुष्य तभी बूढ़ा होता है, जब उसके मन में उत्साह, स्फूति और नये कर्म की भावना नष्ट हो जाती है। उपाध्याय अमर मुनि जी भले ही शरीर से वृद्ध हों, पर उनके दिव्य-मन में उत्साह एवं स्फूति आज के किसी तरुण से कम नहीं है। कार्य की शक्ति उनमें बहुत ही प्रवल है। आज भी नया ज्ञान और नया कर्म सीखने और करने की उनकी शक्ति अद्भुत है।
मार्ग की रुकावट उनको दृढ़ बनाती है। हर वाधा नया उत्साह देती है। हर उलझन नयी दृष्टि देती है । उनमें राम जैसी संकल्पशक्ति है। हनुमान जैसा उत्साह एवं धैर्य है। अंगद जैसी दृढ़ता एवं