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श्रवण : निर्वाण पथ का पहला दीपक
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(१) मोक्ष की अभिलाषा स्फुरित होती है, (२) ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है और (३) तत्त्वज्ञान की उपलब्धि होती है। जिनवचन-श्रवण से ये तीन लाभ होते हैं।
यह ठीक है कि सुनना मात्र ही साधना नहीं है । जिस किसी से कुछ भी सुन लेना भी साधना नहीं है, अपितु तत्त्वजिज्ञासा से युक्त होकर ज्ञानी-साधक से धर्मकथा का श्रवण करना ही साधना है। वस्तुतः तत्त्व की खोज, प्राप्त तत्त्व की स्थिरता और सम्यग्भाव में रमण करने के लिए श्रवण करना ही तपरूप होता है । ऐसा श्रवण ही हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक प्रदान कर सकता है।
जिस प्रकार विद्यार्थी के लिए पाठ्य पुस्तकें पढ़ते रहने पर भी किसी अध्यापक से पढ़ने और उक्त विषय को समुचित रूप से समझने की जरूरत रहती है, उसी प्रकार धर्मशास्त्रों की बातें केवल पढ़कर नहीं, किन्तु शास्त्रज्ञ गुरु से सुनकर समझ में आती हैं । जैसे कोई व्यक्ति पिस्तौल
या बन्दूक से फैकी जाने वाली गोली हाथ से फेंकता है तो उसका कोई खास 'असर नहीं होता, जबकि वही गोली बन्दूक से छूटती है तो उसमें वेग पैदा हो जाता है, वह शत्र का सफाया कर सकती है, वैसे ही स्वयं पुस्तकों या ग्रन्थों से पढ़ने का प्रभाव मन पर उतना नहीं पड़ता, जबकि शास्त्रज्ञ उपदेशक से सुनने से उपदेशक के आत्मबल से उपदेश के शब्दों में अमित ऊर्जा भर जाती है। कई बातें जो केवल पढ़ने से समझ में नहीं आतीं, वे भी उपदेश श्रवण के माध्यम से यथार्थरूप से हृदयंगम हो जाती हैं।
दूसरी बात यह है कि उपदेश-श्रवण करने से सच्चा श्रोता चार गुणों को धारण करता है । जैसे कि विशति-विंशिका (१/१८) में कहा है
मज्झत्थयाइ नियमा सुबुद्धि-जोएण अत्थियाए य ।
नज्जइ तत्तविसेसो, न अन्नहा, इत्थ जइयव्वं ॥ उपदेशश्रवण से मध्यस्थता, नियमितता, उत्तम बुद्धि का योग और अथिता (उद्देश्य के अनुकूल पुरुषार्थ करने की योग्यता) आती है, और इनके कारण तत्त्वबोध होता है। इसमें कोई अन्यथा नहीं है। अतः इन गुणों के उपार्जन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। - नीतिकार ने भी श्रवण से प्राप्त होने वाले गुणों के विषय में पंचतंत्र (५/६३) में कहा है -
यः सततं परिपृच्छति, शृणोति सन्धारयत्यनिशम् ।
तस्य दिवाकरकिरणैनलिनीव विवर्धते बुद्धिः ॥ - -जो सदैव पूछता है, सुनता है और सुने हुए को हृदय में धारण