Book Title: Amardeep Part 01
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 244
________________ महानता का मूल : इन्द्रिय-विजय | २१६ स्थिति में कैसे माना जाय कि इस मनुष्य ने इन्द्रियों पर विजय पाई है, वह स्वाधीन बना है। . बर्नार्ड शॉ ने भगवान् महावीर के निर्वाण कल्याणक के अवसर पर भाषण देते हुए महाकवि शेक्सपीयर के एक वाक्य को उद्धृत करते हुए कहा था Give me that man who is not passions' slave and I will wear him in my heart's core.' "मुझे ऐसा मनुष्य दो, जो इन्द्रिय-विषयों का गुलाम न हो, अर्थात् जिसने इन्द्रियों पर विजय पा ली हो, उसे मैं अपने हृदय के गहरे से गहरे कौने में विराजमान करूगा।'' बर्नार्ड शॉ के उद्गार कितने प्रेरक हैं ? मैं आप से ही पूछता हूं कि आप अपने दिल के दीवानखाने में किसकी छवि विराजमान करते हैं ? किसी बादशाह (शासक) को या महात्मा आत्मानुशासक की ? _ विश्वविजेता कौन ? इन्द्रियविजयी या इन्द्रियदास सिकन्दर जब विश्वविजेता बनने के अहंकार से फूल रहा था और जब उसने दिगविजय करने के लिए भारत की ओर कूच किया, तब उसके गुरु अरिस्टोटल (अरस्तू) ने उसे सच्चे विश्वविजेता के दर्शन कराने और उसके गर्व को खण्डित करने हेतु भारत से स्वदेश लौटते समय एक जैन साधु को ले आने को कहा। अतः जब सिकंदर युद्ध करके पंजाब से वापस लौट रहा था, तब अपने सैनिकों को भेज कर एक जैन साधु को तलाश करके लाने का आदेश दिया । सैनिकों को बहुत खोज के पश्चात नदी के तट पर आत्मसमाधि में बैठे हुए एक मस्त जैन साधु मिल गये। उन्होंने कहा-'चलिये महाराज ! विश्व-विजेता सिकंदर आपको याद करते हैं।" जैन सत ने धीर गम्भीर वाणी में कहा-"सिकंदर कौन है ? यह मैं नहीं जानता । तुम कहते हो कि विश्वविजयो है, तो होगा। परन्तु उस विश्वविजयी से मेरा एक विनम्र प्रश्न पूछना-आपने विश्वविजय तो किया, पर इन्द्रिय-विजय किया या नहीं ? अगर आपने इन्द्रियों पर विजय कर लिया हो तो मैं तुम्हारे पास आने के लिए तैयार हूं। परन्तु केवल जगत् को ही जीता हो तो मुझे वहाँ जाने की जरूरत नहीं।' भौतिकता और भोगविलास के रंग में रंगे हुए सिकंदर को यह प्रश्न बिल्कुल नया लगा। उसे आत्मा, परमात्मा और इन्द्रिय-विजय आदि पर कोई रुचि भी नहीं थी। जिसके सामने बड़े-बड़े वीर, राजा-महाराजा काँपतेथे,

Loading...

Page Navigation
1 ... 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282