Book Title: Amardeep Part 01
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 259
________________ २३४ अमरदीप जावन्तऽविज्जा पुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुम्पंति बहुसो मूढा संसारम्मि अणंतए । जितने भी अविद्यावान पुरुष हैं, वे सब अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं । ऐसे हिताहित अविवेकी मूढ़ प्रायः अनन्त संसार में बार-बार मरते हैं। परन्तु विद्यावान आत्मा उस विद्या की साधना करके सर्वदुःखों से मुक्त हो जाती है। दक्षिण भारत के संत तिरुवल्लूवर इसी प्रकार के विद्यावान् पुरुष थे। वह गृहस्थजीवन में रहते हुए संत का सा जीवन जीते थे। वे व्यापारी थे परन्तु अत्यन्त प्रामाणिक, सत्यवादी और क्रोध से रहित थे । वे फेरी करके कपड़ा बेचते थे । ग्राहक के साथ वे कभी ठगी, धोखेबाजी या नाप में गड़बड़ नहीं करते थे । सदैव शान्ति गे बात करते थे। एक बार वे साड़ियाँ बेचने के लिए बाजार में आए। एक धनिकपुत्र अपने मित्र के साथ वहाँ आया। उसे तिरुवल्लुवर की जीवन सौरभ ज्ञात थी। उसने अपने धनिक मित्र के समक्ष तिरुवल्लुवर की प्रशंसा की। अतः कुतूहलवश उस धनिकपुत्र ने उनकी प्रामाणिकता और शान्ति की परीक्षा के लिए पूछा-'सेठ ! इस साड़ी की कितनी कीमत है ?' तिरुवल्लूवर बोला-'साड़ी का मूल्य सिर्फ दो रुपये है ?' धनिकपुत्र--'बस, दो हो रुपये ?' "हाँ, सिर्फ दो रुपये। इसमें रुई, उसकी कताई, पिंजाई, रंगाई, बुनाई एवं मजदूरी और उस पर रुपये पर मेरा पाँच पैसा मुनाफा मिलाकर मैं सिर्फ दो रुपये में इसे बेचता हं।" धनिकपुत्र ने कहा- "देखू तो कंसी है यह साड़ी ? ठीक देख-परख लू।" यों कहकर धनिकपुत्र ने साड़ी को खोलने के बहाने जोर से झटका देकर उस साड़ी को फाड़ दी और फिर कहा - "लो, इस फटी साड़ी का अब क्या करूँ ? मेरे किस काम की है यह साड़ी । इसे तुम ही रख लो।" शान्त वाणी से तिरुवल्लुवर ने कहा-"ठीक बात है। अब यह साड़ी तुम्हारे काम की नहीं रही । लाओ, मैं इसे वापस रख लेता हूं।" इस पर आश्चर्यमूढ़ बनकर धनिक पुत्र ने कहा- “सेठ ! आपको कितना नुकसान हुआ ? आपकी साड़ी फट गई, फिर भी आपको मेरे पर गुस्सा नहीं आता ?"

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