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अमरदीप
"आकाश-पाताल बांधने की गप्पे मारते हो, और अपनी झोंपड़ी तो बांध ही नहीं सकते झूठे गपोड़शंख कहीं के.........
लोग भी देखते रह गये । ___ तो जो आकाश-पाताल-समुद्र बांधने की बात करे और अपना झौंपड़ा भी न बांधे तो क्या कहेंगे उसे ? __इसी प्रकार दुनियां भर का ज्ञान बघारने वाला यदि खुद को भी नहीं जाने तो उसका ज्ञान क्या काम का है ?
वस्तुतः सच्ची महाविद्या वह है जो मानव को अन्धकार से प्रकाश की ओर या बन्धन से मुक्ति की ओर ले जाए। जो क्रिया शारीरिक ममत्व, आवेगों के प्रवाह, कषायों और राग-द्वष-मोह, तथा विषयासक्ति में बंधने. की क्षिशा देती है । चोरी, ठगी, बेईमानी, तस्करी आदि को कला सिखाती है, वह विद्या के नाम पर कुविद्या है, वह भयंकर कर्मबन्धन में डालकर मनुष्य को दुर्गति का मेहमान बना देती है। अध्यात्म रामायण में विद्या और अविद्या का अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा गया है
देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता। .
नाऽहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिविद्येति कथ्यते ॥ -मैं शरीर हूँ इस प्रकार की जो बुद्धि है, वही अविद्या कहलाती है। किन्तु मैं शरीर नहीं, सच्चिदानन्दघनस्वरूप आत्मा हूं इस प्रकार की बुद्धि को 'विद्या' कहा जाता है।
संक्षेप में, जो आत्मा की शान्ति-पिपासा बुझा सके, दुःखपरम्परा को समाप्त करने की शिक्षा दे तथा आत्मा को अपनी पहचान करा दे, वही विद्या है । जो आत्मा के अहंता और ममता के क्षुद्र घेरों को तोड़कर मानव-मन को विराट् बनाती है।
आत्मभाव का परिज्ञाता जब अपनी शुद्ध स्थिति का अभाव पाता है, तब वह स्वयं को बन्धनबद्ध महसूस करता है, फिर उसकी जिज्ञासा बन्धनमुक्ति की होती है। बन्धनमुक्ति के लिए पुरुषार्थ बन्धन के कारणों को दर करने और उपाय को क्रियान्वित करने के लिए कटिबद्ध करता है। इस प्रकार यह लोकोत्तर विद्या सर्व दुःखों से मानव को विमुक्त करती है।
___इसके विपरीत जो विद्या व्यक्ति को स्वावलम्बी नहीं बनाती, मातापिता के आश्रित बनाती है, आत्मिक दीनता से पिण्ड नहीं छुड़ा सकती, वह विद्या विद्या के रूप में एक प्रकार की अविद्या है।