Book Title: Amardeep Part 01
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 277
________________ २५२ अमरदीप उस विचार को कार्यान्वित करने का फल तो और भी भयंकर होता है। पांचली किसान परिवार को यह पापफल तो इस लोक में मिला । परलोक में भी न जाने कितनी-कितनी यातनाएँ सहनी पड़ेगी, इसका विचार आते ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः जैसे सांप सामने मिलते ही, आप उससे बचकर दूर भागते हैं, उसी प्रकार पाप का विचार मन में आते ही उससे दूर भाग जाओ। उस विचार को तुरंत मन से निकाल दो। वाणी और चेष्टा में कदाचित् पाप आ जाए तो उसे भी पश्चात्ताप, आलोचना, गर्हा, क्षमा एवं प्रायश्चित्त द्वारा शीघ्र ही हलका कर दो। उसकी पुनरावृत्ति तो कदापि मत होने दो। पाप करके सुख-शान्ति की कल्पना करना वैसा ही है जैसा कि प्याज खाकर इलायची की डकार लेना। पाप की परिणति का विपा कोदय अशुभ ही होता है। साधक के जीवन में पाप की एक बूंद भी उसकी अध्यात्म-साधना को चौपट कर देती है, उसके आत्मविकास को ठप्प कर देती है। अज्ञान, अविवेक और दुर्बुद्धि से मानव बहुत से पाप अर्जित कर लेता है। अतः प्रत्येक प्रवृत्ति करते समय यतना-विवेक का ध्यान रखना चाहिए। ताकि पाप के दुष्परिणाम-कटुफल भोगते समय घोर पश्चात्ताप न करना पड़े। पाप से विरत साधक को स्वभाव में स्थिति इसके पश्चात् अहं तर्षि वरिसवकृष्ण पापकर्मों से दूर रहने वाले साधक के जीवन के सम्बन्ध में कहते हैं प्र०-जे खलु भो जीवे णो वजं समादियति, से कहमेतं ?' उ० - 'वरिसवकण्हेण अरहता इसिणा बुइतं । पाणातिवात-वेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्ल-वेरमणेणं, सोइंदिय-निग्गहणेणं णो वज्जं समज्जिणित्ता, हत्थछेयणाई, पायच्छेयणाइं जाव दोमणस्साई वीतिवतित्ता सिवमचल-जाव 'चिट्ठिति । (प्रश्न है)- 'जो आत्मा पाप का उपार्जन नहीं करता, वह किन कारणों से और कैसे ?' (उत्तर)-'वरिसवकृष्ण अहं तर्षि बोले-प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य (इन अठारह पापस्थानों) से विरति तथा श्रोत्रेन्द्रिय (यावत्

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