Book Title: Amardeep Part 01
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 268
________________ आत्मविद्या से कर्मविमुक्ति २४३ में दुःखों के कारणभूत कर्मों से मुक्ति का उपाय क्या है ? इसी प्रश्न के उत्तर अर्हषि विदु कहते हैं सम्मं रोग - परिण्णाणं, ततो तस्स विणिच्छितं । जोगो रोग तिगिच्छितं ॥ ३॥ रोगोसहपरिणाणं, विमोक्खणं । farai ||४|| फल-परंपरं । सम्म कम्मपरिणाणं, ततो तस्स कम्म मक्ख परिणाणं करणं च बंधणं मोयणं चेव, तहा जीवाण जो विजाणाति, कम्माणं तु स कम्महा ||६|| अर्थात् - 'रोग मुक्ति के लिए सर्वप्रथम रोग का परिज्ञान होना चाहिए । तत्पश्चात् उसका निदान तथा रोग के औषध का परिज्ञान ( पहचान) होना चाहिए। तभी उस रुग्ण के रोग की चिकित्सा का संयोग आ सकता है । यही बात कर्म-विमुक्ति के लिए भी है । पहले सम्यक् - प्रकार से कर्म का परिज्ञान हो, बाद में उसके विमोक्ष का ज्ञान आवश्यक है । कर्म और उससे मोक्ष का परिज्ञान और तदनुसार आचरण आत्मा को मुक्त बना सकता है ।' 'इस प्रकार आत्मा के बन्धन रूपकर्म) और मोक्ष को तथा उसके फल की परम्परा को जो जानता है, वही कर्मशृंखला को तोड़ सकता है।' अध्यात्मविद्या के सन्दर्भ में ये गाथाएँ अर्हतषि विदु ने प्रस्तुत की हैं । रोगविमुक्ति के लिए जिस प्रकार चार बातें आवश्यक हैं- 1 (१) मेरे देह में किसी प्रकार का रोग है, यह अनुभव । (२) रोग की पहचान, कि रोग कौन-सा है ? (३) रोग की औषध का ज्ञान । (४) रोग की चिकित्सा शक्य और उससे रोगमुक्ति अवश्य होगी, ऐसा विश्वास । इसी प्रकार कर्म से विमुक्ति के लिए भी चार बातें अपेक्षित हैं(१) कर्म है, जो आत्मा को बन्धन में डालता है, अर्थात् — कौन-सा कर्म है ? इसकी पहचान । (२) कर्म से मोक्ष हो सकता है । (३) कर्म और मोक्ष का स्वरूप-विज्ञान और (४) उस ज्ञान को क्रियान्वित करना । ये चारों ही वाते आत्मा को बन्धन से सर्वथा मुक्त होने के लिए हैं । बौद्धदर्शन में चार आर्यसत्य इसी से मिलते-जुलते हैं – (१) दुःख है,

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